ग़ज़ल “फूल हो गये अंगारों से”
कहना है ये दरबारों से
पेट नहीं भरता नारों से
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सूरज-चन्दा में उजास है
काम नहीं चलता तारों से
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आम आदमी ऊब गया है
आज दोगले किरदारों से
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दरिया पार नहीं होता है
टूटी-फूटी पतवारों से
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कोरोना की बीमारी में
रौनक गायब बाजारों से
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ईँधन पर महँगाई क्यों है
लोग पूछते सरकारों से
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जनसेवक मनमानी करते
वंचित जनता अधिकारों से
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नहीं पिघलता दिल दुनिया का
मजदूरों की मनुहारों से
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क्या होती है आग पेट की
कोई पूछे लाचारों से
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हरियाली अभिशाप बन गयी
फूल हो गये अंगारों से
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बदल गया क्यों ‘रूप’ वतन का
पूछ रहे सब सरदारों से
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)