सामाजिक

रंगभेद

रंगभेद यानी श्वेत अश्वेत (गोरे काले) की लड़ाई न जाने कितने सालों से चली आ रही। इस ज्वलंत मुद्दे को उठा कर उस पर कार्य करने की नेल्सन मंडेला की बेहद ही अहम भूमिका रही है। पर सदियों से चला आ रहा रंगभेद का मुद्दा कभी थमा ही नहीं। जब बैरक ओबामा ने  अमेरिका की सत्ता संभाली थी तब भी दबे ही सही अनेक स्वर मुखर होते रहे क्योंकि बावजूद इसके की वह एक बेहद ही कुशल प्रधानमंत्री साबित हुए अमेरिका को ये रास कैसे आता क्योंकि वह अश्वेत थे । अगले चुनाव में नया चेहरा उभर कर आ गया श्वेत डोनाल्ड ट्रम्प के रूप में।
और एक बार फिर सत्ता श्वेत राजनेता के हाथ में थी जिस पर सदियों से सिर्फ श्वेतों का ही वर्चस्व रहा है सिर्फ एक बैरक ओबामा ही पहले ऐसे राजनेता बने जो अश्वेत थे।
राजनीति गलियारों से आगे निकलें तो निजी तौर भी रंगभेद की लड़ाई कभी थमी ही नहीं।
अब कुछ दिनों पहली की घटना याद करें जब एक अश्वेत को श्वेत पुलिस कर्मी ने अपने दोनों पैरों के बीच उसकी गर्दन को दबा उसकी जान ले ली। वह गिड़गिड़ाता रहा मेरा दम खुट रहा है पर पुलिसकर्मि का ज़रा भी दया नहीं आई और जब तक वो मर नहीं गया उसे छोड़ा नहीं।
इस घटना के बाद एक रोष की लहर पूरे अमेरिका सहित अनेक देशों में आग की तरह फैल गयी – खूब तोड़फोड़, प्रदर्शन भी हुए कई दिनों तक लेकिन अब फिर सब शांत।
आखिर श्वेत अश्वेत(गोरे और काले रंग) में ऐसा है क्या जो दो लोगों को इतना अलग बनाती है। हाल ही में कैनेडा में रह रही हमारी भतीजी मेघन नागपाल ने शादी डॉट कॉम पर फॉर्म में स्किन टोन का कॉलम देखा था उसे बेहद ही अचम्भा हुआ। शादी के लिए भी ये ज़रूरी है की लड़की गौरी है या काली। इस बात को सामने रखते हुए उसने अपनी सहेली के साथ एक मुहिम भी चलाई है की क्या शादी डॉट कॉम में इस स्किन टोन यानी आपका रंग क्या है इसकी सच में आवश्यकता है, जिसका ज़ोरदार समर्थन मिल रहा है।
विदेशों से निकल कर अपने देश की बात करें तो क्या यहां भी हम चाहे फ़िल्म इंडस्ट्री हो, मॉडलिंग, फैशन शो, विज्ञापन,मिडिया आदि में नहीं देखते की गोरे रंग को ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है और सांवले या काले रंग को कम।
यही बात विवाह की बात के विज्ञापनों में भी देखी जा सकती  है जिस में अक्सर रंग के बारे में बोल्ड अक्षरों में लिखा होता है जो माता पिता की नींद उड़ा देती है की आखिर उनकी बेटी का रिश्ता कैसे तय होगा जिस का रंग गोरा नहीं।
देश हो या विदेश हमारा समाज क्यों रंगभेद को इतना बढ़ावा देता है की उसने नज़रिए को ही दो रंगों में बांट दिया है एक गोरा एक काला।
इसका लाभ अनेको कंपनियाँ मार्किट में नए नए फेयरनेस क्रीम , साबुन व अन्य पदार्थ बाज़ार में लाकर इसका भरपूर लाभ उठा रही हैं। जिनका प्रचार प्रसार भी बड़े बड़े कलाकार करते हैं।
पहले तो सिर्फ महिलाओं को लुभाने और अपनी और आकर्षित करने के लिए बाज़ार में ऐसे अनेकों प्रसाधन लाये गये पर अब तो पुरुषों के लिए भी ऐसे उत्पादनों की लंबी लाइन लग गयी है।
क्या ये सब सही है?क्या ये सब उचित है?क्या कोई भी क्रीम, साबुन या अन्य पदार्थ आपका रंग बदल सकती है।
इसका जवाब यही होगा “जी बिल्कुल भी नहीं”। कोई भी प्रोडक्ट या ब्यूटी ट्रीटमेंट आपके कुदरती रंग को नहीं बदल सकते।  ज़रूरत है अगर किसी चीज़ की तो वो है अपने नज़रिए और सोच को बदलने की तभी रंगभेद का कीड़ा देश और समाज के दिलो दिमाग से निकल पायेगा। वरना ये जंग ये मसला श्वेत अश्वेत (गोरे-काले) का कभी भी खत्म नहीं होगा। इंसान को इंसान की नज़र से देखिए, उसकी काबलियत, उसके गुणों, उसके संस्कारों, उसके स्वभाव से न की रंगभेद के आधार पर तभी बदलाव की सहर आ पाएगी समाज, देश विदेश में।।
— मीनाक्षी सुकुमारन

मीनाक्षी सुकुमारन

नाम : श्रीमती मीनाक्षी सुकुमारन जन्मतिथि : 18 सितंबर पता : डी 214 रेल नगर प्लाट न . 1 सेक्टर 50 नॉएडा ( यू.पी) शिक्षा : एम ए ( अंग्रेज़ी) & एम ए (हिन्दी) मेरे बारे में : मुझे कविता लिखना व् पुराने गीत ,ग़ज़ल सुनना बेहद पसंद है | विभिन्न अख़बारों में व् विशेष रूप से राष्टीय सहारा ,sunday मेल में निरंतर लेख, साक्षात्कार आदि समय समय पर प्रकशित होते रहे हैं और आकाशवाणी (युववाणी ) पर भी सक्रिय रूप से अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहे हैं | हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रहों .....”अपने - अपने सपने , “अपना – अपना आसमान “ “अपनी –अपनी धरती “ व् “ निर्झरिका “ में कवितायेँ प्रकाशित | अखण्ड भारत पत्रिका : रानी लक्ष्मीबाई विशेषांक में भी कविता प्रकाशित| कनाडा से प्रकाशित इ मेल पत्रिका में भी कवितायेँ प्रकाशित | हाल ही में भाषा सहोदरी द्वारा "साँझा काव्य संग्रह" में भी कवितायेँ प्रकाशित |