बालकहानी : शशांक की गुरुभक्ति
सिर्रीवन में सृष्टि ऋषि का आश्र था। आश्रम में रहकर विद्यार्थी विद्या प्राप्त करते थे ; क्योंकि पहले आज की तरह पाठशालाएँ नहीं थीं। विद्यार्थी अपने गुरू की सेवा मन लगाकर करते थे। आश्रम का पूरा काम विद्यार्थी ही किया करते थे ; जैसे – आश्रम की सफाई करना , लकड़ी लाना , पानी भरना , भोजन की व्यवस्था करना , फल-फूल लाना आदि। महर्षि सृष्टि भी शिष्यों को एक पिता की स्नेह व प्रेम करते थे।
आश्रम में शशांक का नाम का एक विद्यार्थी था। वह सीधा-सादा और मेहनती था। आश्रम के आँगन में झाड़ू लगा रहे शशांक पर ऋषि की नजर पड़ी। चूँकि संध्यावंदन का समय हो रहा था , अतः शशांक को आवाज दी – ‘ वत्स ! जाओ जल्दी फूल तोड़कर ले आओ। ‘ गुरुदेव की आज्ञा पाकर शशांक टोकरी लेकर फूल लेने निकल पड़ा।
जाते समय शशांक के पैर में काँटि चुभ गये। पैर से रक्त की धारा फूट पड़ी। पीड़ा की परवाह किये बिना वह और तेजी से चलने लगा , क्योंकि संझापूजन के लिए फूल जो लाना था। शशांक फूल के पास पहुँचा। जैसे ही वह फूल तोड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया , उसे एक फूंकार सुनाई दी। वह सहम गया और इधर-उधर देखने लगा। फिर उसे एक साँप दिखाई दिया ; जो फूलों के पास टहनी पर चिपका हुआ था। दोनों एक-दूसरे को एकटक देखने लगे। कदाचित् साँप को कतई पसंद नहीं था कि कोई फूल तोड़े। शशांक साँप को विनती भरी निगाहों से देखने लगा और विनम्रतापूर्वक शब्दों में कहा – ‘ हे नागदेव ! कृपया आप अपने स्थान से हट जाइए। मुझे फूल तोड़ने दीजिए। ‘ शशांक की बातों को सुनकर साँप जोर से फूंकार मारने लगा। शशांक असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा – ‘ गुरुदेव मेरी प्रतिक्षा कर रहे होंगे। यदि फूल नहीं ले जा पाऊँगा तो वे मुझ पर नाराज हो जाएँगे। आश्रम के सभी विद्यार्थी मेरा मजाक उड़ाएँगे। गुरुदेव की आज्ञा का पालन न कर पाना मेरे लिए शर्म की बात होगी। मुझे फूल तोड़कर ले जाना ही है , चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े। गुरुदेव की आज्ञा का पालन जान की बाजी लगाकर करने के लिए उसने मन में ठान लिया ; और फूल तोड़ने लगा। फूल तोड़ते समय शशांक के हाथ साँप लगातार डसते जा रहा था , परन्तु वह पूरे साहस के साथ फूल तोड़ रहा था। उसने टोकरी भर फूल तोड़कर आश्रम की राह पकड़ ली। फूल लेकर लौटते शशांक को साँप आश्चर्य से देख रहा था।
सूर्यास्त हो चुका था। शशांक जल्दी-जल्दी चलने लगा। उसके शरीर में विष फैलने लगा था। इधर आश्रम में शशांक के अब तक नहीं लौटने पर महर्षि सृष्टि को चिंता होने लगी थी। कुछेक क्षण पश्चात् शशांक लड़खड़ाते हुए आश्रम पहुँचकर गिर पड़ा। महर्षि दौड़कर उसके पास पहुँचे। ऋषिवर को शशांक के हाथ के घावों एवं शरीर को स्याह वर्ण होते देखकर स्थिति को समझने में देर न लगी – ‘ फिर भी पूछने लगे – ‘ वत्स , तुम्हें क्या हुआ… और तुम्हें इतना समय कैसे लग गया ? ‘ शशांक कुछ नहीं बोल पाया। आँखों के समक्ष अंधेरा छाने लगा। मूर्छा छाने लगी। मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी। बस वह इतना ही बोल पाया – ‘ गुरुदेव ! मैंने फूल ले आया। ‘
ऋषिवर उसके उपचार में लग गये। आश्रम के सभी विद्यार्थी शशांक की मुर्छा दूर करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिये। शशांक की प्राण रक्षा के लिए दुआओं की झड़ी लगगयी। गुरुदेव व विद्यार्थियों के अथक प्रयत्न से शशांक की मुर्छा दूर हुई।
फिर शशांक महर्षि के चरणों में शीश नवाकर कहने लगा – ‘ गुरुदेव ! कृपया मुझे क्षमा करें। फूल लाने में देर हो गयी। ‘ आपबीती सुनाते हुए शशांक को महर्षि ने अपने सीने से लगाकर बोले – ‘ शशांक ! पुत्र , मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। बेटे , तुम धन्य हो । ‘ महर्षि सृष्टि शशांक की पीठ पर हाथ फेरते हुए उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”