कविता

वक्त के साथ

वो  गलिया,
वो  दरवाज़े बदल जाते है |
बचपन  के  चाव,
जवानी  आते-आते ठहर जाते है |
कहाँ  ढूँढे कोई  ,
यादों के  घरों  को,
यह तो  चेहरे -दर-चेहरे
वक्त के  साथ  बदल जाते है |
हर एक  का,
हर एक  से,
निश्चित  है  समय |
बीते वक्त में  ,
अब  जा के  कही
कोई मिलता है  कहाँ
वो  दोस्त मेरे,
वो भाई  मेरा  ,
वो  छोटी  बहनें
एक  छोटा -सा घर मेरा।
एक  सपना  था  मेरा |
मां-बाप तक ही,
यहाँ सारी  ,
दुनिया  सिमट जाती थी |
मेरे घर से  छोटी -सी सड़क
शहर  तक भी  जाती थी |
वक्त  गुजरा,
सब बदल गया |
कोई मोल न था,
जिन लम्हों का
आज  लगता है कि,
सब वे-मोल गया |
मैं  बदला,
सब बदल गया |
मैं  हूँ  वही,
पर अब वो  सब |
वो नहीं कहीं |
वो  गलिया,
वो दरवाज़े ,
अब  बुलाते  नही |
वक्त के  साथ,
उन  से  मैं,
मुझसे वो  अनजान सही|
क्योंकि वो  चेहरे पुराने
अब  कहीं नज़र आते  नही |
— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]