वक्त के साथ
वो गलिया,
वो दरवाज़े बदल जाते है |
बचपन के चाव,
जवानी आते-आते ठहर जाते है |
कहाँ ढूँढे कोई ,
यादों के घरों को,
यह तो चेहरे -दर-चेहरे
वक्त के साथ बदल जाते है |
हर एक का,
हर एक से,
निश्चित है समय |
बीते वक्त में ,
अब जा के कही
कोई मिलता है कहाँ
वो दोस्त मेरे,
वो भाई मेरा ,
वो छोटी बहनें
एक छोटा -सा घर मेरा।
एक सपना था मेरा |
मां-बाप तक ही,
यहाँ सारी ,
दुनिया सिमट जाती थी |
मेरे घर से छोटी -सी सड़क
शहर तक भी जाती थी |
वक्त गुजरा,
सब बदल गया |
कोई मोल न था,
जिन लम्हों का
आज लगता है कि,
सब वे-मोल गया |
मैं बदला,
सब बदल गया |
मैं हूँ वही,
पर अब वो सब |
वो नहीं कहीं |
वो गलिया,
वो दरवाज़े ,
अब बुलाते नही |
वक्त के साथ,
उन से मैं,
मुझसे वो अनजान सही|
क्योंकि वो चेहरे पुराने
अब कहीं नज़र आते नही |
— प्रीति शर्मा “असीम”