“जीना पड़ेगा कोरोना के साथ”
कोरोना ने
हमारे चारों ओर
जाल बुन लिया है
—
जाल!
हाँ जी!
जाल तो जाल ही होता है
चाहे वह मकड़ी का जाल हो
या बहेलिए का जाल
—
नदी, सरोवर सिन्धु में
चाहे मछलियाँ हों
या
मगरमच्छ हों
कोई नहीं बच सकता
जाल के फन्दे से
किन्तु एक उपाय है
—
आज हमें संगठित होकर नहीं
बल्कि
अलग-अलग रहकर
सावधानियों के साथ
इस जाल को काटना है
—
हवा में
पहले प्रदूषण की
समस्या थी
आज उसके साथ
विषाणु ने भी
डेरा डाल दिया है
—
घर-बाहर
आज कोई सुरक्षित नहीं है
सरदी-गरमी
या बरसात
कोई भी मौसम हो
इस विषाणु को
नहीं मार सका है
—
विडम्बना है ये
प्राणिमात्र के लिए
संकट काल है
जीना मुहाल है
—
विश्व परेशान है
कोरोना का जनक भी
हैरान है
नहीं बनी है
आठ महीने में भी
कोरोना विनाशक
कोई दवाई या
प्रतिरोधक वक्सीन
—
जीना तो पड़ेगा ही
मगर कैसे?
—
मुखपट्टी लगाकर
सामाजिक दूरी बनाकर
स्वच्छता के साथ
और धोना है
हर घण्टे साबुन से हाथ।
अब तो जीना सीखना है हमें
कोरोना के साथ।
—
डरना नहीं डराना है
हारना नहीं हराना है
कोरोना को भगाना है
—
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)