कविता
बेखौफ सी है यह डगर अंजाम ढूंढता हूं,
जर्रे जर्रे में जा जाकर मैं एक पैगाम ढूंढता हूं
जीना है तेरी खातिर हर पल
फूलों से सजा हो तेरा कल
गंगा का हो निर्मल जल
निडर निर्भीक हो मां का आंचल
अब मैं तेरे हर वादे में बस यही शाम ढूंढता हूं।
मुलाजिम से सजे हर तरुण अनेक
स्वर्ण काल हो जग में एक
ईर्ष्या अधम जन-जन दे फेक
ऐसी मानवता को हम देख
तेरी धरती पर सकल सजीव सम्मान ढूंढता हूं।
उद्भव से मरण तक कत्लेआम देखता हूं,
शावक जननी की चक्छू में शत्रु का घटक तमाम देखता हूं,
कब जाएगा जन-जन से यह डर
सरल सरोवर में मानवता को खा जायेगा मगर
सत्य अहिंसा और निष्ठा की बच पायेगी क्या डगर
सकल सजीव की है यह लहर
शांति सरोवर और करुणा का धारा भामा ढूंढता हूं।