पंछियों का कोलाहल
दुबके इंसान घरों में
मुंडेर पर बोलता कौआ
अब मेहमान नही आता
संकेत लग रहे हो जैसे
मानों भ्रम जाल में हो फंसे।
नही बंधे झूले सावन में
पेड़ों पर
उन्मुक्त जीवन बंधन हुआ
अलग अलग हुए
अनमने से विचार
बाहर जाने से पहले
टंगे मन में भय से विचार।
हाथ धुले
मुँह ढकें चेहरे लिए लोग
आँखों से बोल कर
समझाने लगे
लगा यूँ जैसे
इशारों की भाषा ने
लिया हो पुनर्जन्म।
संक्रमण से बनी दशा
दूरियों से होगी कम
और पालन करना होगा
नियमों और दवाइयों का।
लक्ष्य बनाना होगा
क्योंकि
स्वस्थ्य धरा
निरोगी इंसान
बनना और बनाना
इंसानों के हाथों में तो है।
— संजय वर्मा “दृष्टि”