व्यंग्य – कवि जी !
वे अपने को कवि कहते हैं।कहते ही नहीं अपने नाम से पहले लिखते भी हैं। जब वे कवि हैं तो भला किसकी जुर्रत है कि उन्हें कोई कवि न कहे , कवि की मान्यता न दे।अपने पूरे मोहल्ले में तो कवि जी कवि जी का हल्ला मचा ही रहता है , पूरे शहर में भी लोग उनका असली नाम भूल गए हैं। उनका उपनाम ही उनका पता है। यदि बाहर से कोई उनका नाम लेकर उनके पास पहली बार आता है ,तो उनके असली नाम से तो कोई उन्हें बता ही नहीं पाता कि श्री अशर्फी लालजी कहाँ निवास करते हैं। जब तक कोई कवि श्री अशर्फी लाल जी नहीं कहता ,तब तक उनका नाम पता बताना ऐसा हो जाता है जैसे गधों के झुंड में अपना गधा ढूँढ़ पाना !
जब कोई उन्हीं जैसा हुआ तो गनीमत है कि जब तक उनके पास आने वाला इच्छा या अनिच्छा से दस बीच रचनाएँ सुन नहीं लेता ,तब तक वे पानी की भी नहीं पूँछते।हाँ, यदि कोई बेशर्मी से पानी माँग भी लेता है तो पानी आने में ही चार -पाँच रचनाएँ सुन लेना आम बात है। कवि जी की रचनाओं को सुनने में कोई रुचि रखता हो या नहीं , इस बात से कवि जी को कोई रुचि नहीं। उन्हें तो बस अपनी कविताएँ सुनानी हैं तो बस सुनानी ही हैं। बस आप वाह ! वाह !! क्या बात कही है! आप तो आप ही हैं, आपने तो तुलसीदास सूरदास को भी पीछे छोड़ दिया।आप तो आज के तुलसी हो , बिहारी हो ।जैसे अनेक प्रशंसात्मक वाक्य कहते रहिए और उनकी कविताओं के अगाध सागर में गोते लगाते रहिए। बेचारा आने वाला उनकी कविता सुनकर यह भी भूल जाता है कि वह किस काम से आया था।
यदि कोई अरसिक व्यक्ति उनके पास आया तो भी उसे कविता तो सुननी ही पड़ेगी। उनकी देहरी से निकलने के बाद ऐसा आगंतुक पुनः लौटकर भी उनके दरवाजे की ओर नहीं देखता कि कहीं फिर से आवाज देकर न बुला लें और पुनः काव्यालाप न शुरू कर दें। वह फिर कभी भी कविजी के पास नहीं आने की कसम लेकर ही उनसे पीछा छुड़ाता है।
मोहल्ले -पड़ौस के सभी लोग कवि के इस पवित्र गुण और चरित्र से भली भाँति सुपरिचित हैं , इसलिए नमस्ते करके ऐसे दूर भागते हैं जैसे उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव दूर विकर्षित होता है। अपने ही शहर में कवि जी ने कुछ ऐसे चेले पाल रखे हैं , जो आए दिन उनके घर पर कवि सम्मेलन का आयोजन कर मोहल्ले वालों की नींद खराब करते हैं। प्रायः कवि निशाचर जो होते हैं न ! इसलिए उनके आयोजन रात में रतजगा करते हुए ही सम्पन्न होते हैं। मोहल्ले वालों को इसमें कोई रुचि नहीं है। इसलिए कवि जी उनके लिए एक ही जुमला प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं, भैंस के आगे बीन बजाई , भैंस खड़ी पगुराय।
यह तो हुई एक कवि जी की बात। इस शहर में ऐसे अनेक कवि उपाधिधारी मानव जीवन -यापन करते हैं।जिनके अपने -अपने तख़ल्लुस हैं, कोई टोंटी है , कोई ढप, कोई बगला कोई हंस, कोई दादू है कोई चाचू, कोई उत्कृष्ट है ,कोई प्रकृष्ट। निकृष्ट कोई नहीं है।एक से बढ़कर एक उपनाम धारी कवि औऱ कवयित्रियाँ।कवयित्रयों के उपनाम भी एक से बढ़कर एक हैं , जैसे चोंची, स्माइल, तबस्सुम, ख़ुशबू, आराध्या औऱ बहुत से मनोहर नाम ,उपनाम। इन कवियों के अपने -अपने ग्रुप हैं , जो प्रायः जाति आधारित हैं। इसलिए वे सब चाहे जैसी रचना करें , उनका नाम चमकना ही है। उन्हें तरह -तरह के सम्मान पत्रों से सम्मनित करना मंच का पावन अधिकार है। वे सब के सब हंस हैं ,उनमें कोई भी कागा नहीं है । यदि दुर्भाग्यवश कोई अन्य जाति वाची उनमें सम्मिलित हो जाता है तो उसका स्थान किसी टिटहरी या कौवे से अधिक नहीं होता।
यह देश का सौभाग्य है कि देश में हजारों जातियाँ हैं, इसलिए कवि कवयत्रियाँ भी लाखों करोड़ों में हैं। एक – एक गली से लारी भर कलमकार मिलना सामान्य बात है। देश में हजारों लारियाँ भर सकती हैं। वे अपने काव्यगत वीररस से समुद्र में लहरें पैदा कर रहे हैं, पर दुर्भाग्य कि कविताओं से गोलियां नहीं निकलतीं ।धुआँ भी नहीं पैदा हो पाता तो किसी दुश्मन को कैसे मार पाएँगे। हमारे मान्यवर कविजी श्री अशर्फी लाल जी भी देश के ऐसे ही हीरा हैं, जिनकी शब्दराशि से बारूद की सुगंध वातावरण में व्याप्त हो जाती है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’