ग़ज़ल
सावन की बरसातों में प्रेम का अंकुर फूट न जाए
एक बेचैनी सी है मन में धैर्य का धागा टूट न जाए।
ये कैसा अहसास है जिसमें बिना डोर हम बंध बैठे
प्रेम विवष कर मन मेरा कोई मुझसे लूट न जाए।
तू है तारा नील गगन का मैं तिनका कंकर माटी
कैसे तुमको छू पाएंगे आस का सूरज डूब न जाए ।
तुम संग पावन प्रीत की बंधन प्यार से मैंने बांधा है
किसी हाल में किसी मोड़ पे हाथ हाथसे छूट न जाए।
तेरी सूरत में जानिब मैंने मन का मनमोहन देखा है
मेरा मन राधा हो बैठा ये जग हमसे रूठ न जाए।
— पावनी जानिब सीतापुर