ग़ज़ल
कर्ता का खेल निराला है।
बालू से तेल निकाला है।।
तू समझ रहा मैं कर्ता हूँ,
घड़ियों ने तुझको ढाला है।
सीमा का भंजन किया सदा,
वह आफ़त का परकाला है।
करनी अपनी देखता नहीं,
आँखों पर उसके जाला है।
गुर्गों को पाल झूमता है,
गर्दन में मोटी माला है।
है देर मगर अंधेर नहीं,
क्या तू अर्जुन का साला है!
जब घड़ी कयामत की आती,
दिखता न अँधेरा काला है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’