ग़ज़ल
दरमियां बाक़ी अभी हैं खांइयाँ।
कह रही हैं चीख़ कर तन्हाइयाँ।
मुल्क की खातिर बहा कितना लहू,
सब भुला डाली गयीं क़ुर्बानियाँ।
उनको अपने हुस्न पर बेजा गुरूर,
हम भी हारे कब भला हैं बाज़ियाँ।
दूरियों से प्यार कम होता नहीं,
दूर दिल से कर सकीं कब दूरियाँ।
कल करोना काल में थीं जिस तरह,
अब नहीं बाक़ी हैं वैसी सख़्तियाँ।
उनकीआमदकीख़बरसुनकरहमीद,
छा गयीं हर एक पर मदहोशियाँ।
— हमीद कानपुरी