घूंघट
घूंघट की ओट में “लघुकथा” अपराधिन सी खड़ी थी। चारों ओर से माननीय सदस्यों ने उसे घेर रखा था। आरोप था कि लघु होने के बावजूद वो निरन्तर अपना आकार बढ़ा रही है। कभी कलेवर को लेकर, तो कभी कथ्य को लेकर, कभी भाषा को लेकर तो कभी तंज को लेकर, नवेली लघुकथा के खिलाफ, नित नई शिकायतें आ रहीं थीं।
“कसावट का क्या, वो तो हर लेखन की मांग है।” कहानी ने एक और आरोप मढ़ दिया।
अब तलक संकोच और लज्जा में सिमटी मितव्ययी लघुकथा, लाज का घूंघट उठा भरी महफिल में बोल उठी, “आपका मुझसे क्या बैर है? यही कि मैं गागर में सागर भरने की कला हूं?”
ऐसा लगा मानो एक पढ़ी – लिखी नारी दूसरों से सामंजस्य बिठाते – बिठाते थक कर, चंद शब्दों में ही अपनी गहराई और मारक होने का एहसास करवा गई हो।
अंजु गुप्ता