कविता

लोरी

लोरी की बात अाई
तो याद अाई बचपन की
वो लोरी जो हर मां
अपने बच्चे को
अपनी गोद में
थपथपाकर सुलाने की
कौशिश करते हुए
गुन गुनाती थी
लल्ला लल्ला लोरी
दूध की कटोरी
दूध में बतासा
मुन्नी करे तमाशा
छोटी-छोटी प्यारी सुंदर परियों जैसी है
किसी की नज़र ना लगे मेरी मुन्नी ऐसी
बच्चा लोरी सुन सो जाता
मां लग जाती घर काम में
आज का बचपन
वंचित हो गया
मां की इन लोरियों से
बचपन पल रहा
पालना घर में
किराए की मां की गोद में
मां का दूध उससे छीन लिया गया
मिलता पीने को अब उसे
बंद डिब्बे का दूध
कहां से उमड़ेगा उसमें
मां के प्रति प्यार और सम्मान
क्या जानेगा वो
मां के दूध की कीमत
बचपन में ही तो डलते हैं
बच्चों में संस्कार
सुबह से शाम
जब वो रहेगा
पालनाघर में
कहां से पाएगा वो संस्कार
अपनी मां का दूध पिया है तो आजा
सुनकर जोश नहीं आता
किस दूध का कर्ज चुकाए
जो पिया नहीं उसने
यह मुहावरे सब हो गए आज अर्थहीन
कुछ नए मुहावरे बनाने होंगे
बचपना भी अब डिजिटल हो गया
*ब्रजेश*

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020