बसंत
बसंत कब रुकता है किसी के जीवन में
पतझड़ का चलन जोर पर है अब तो
प्रेम पर कब अधिकार है किसी का
नफरत का चलन चहुँ ओर है अब तो
शब्दों से खेलते तो भी मुनासिब था
हृदय की तरंगों से खेलना ही खेल है अब तो
दिल में मचाकर प्रेम का मनोरम तांडव
भावनाओं से खेलना ही प्रेम है अब तो
वक़्त समझा रहा है उम्र का तकाजा
हक़ीक़त को समझना ही शेष है अब तो
प्रेम ,प्रीत ,मोह्हबत शब्द हैं किताबों के
बदलाव का हर जगह दौर है अब तो
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़