लघुकथा

माँ का आँचल

आज बिदा हो रही हूँ, क्या लिखूँ मैं अपने बारे में कुछ समझ नहीं आता। जिसके आँचल को थामकर बढ़ी हुई, आज उन्हे ही छोड़ना पड़ रहा है। ये गम नही कि जिस आँचल मे जा रही, वहा वो प्यार मिले!, वहा तो शायद प्यार का भंडार होगा। पर सोचती हूँ उस आँचल का क्या होगा जो मेरे बिना सूनी हो जायेगी।
कौन उसपर रोज अपना सर रखकर नरम- नरम हाथो का गालो पर सेक लेगा!
प्यारी सी मुस्कुराहटों से भरी आँखों को ये आँचल रोज ढूँढेगी।
मेरी एक आँसू से वो आँचल तड़प पड़ती है मेरी नम आँखों को पोंछने के लिए।
पर अब वो आँखे तो कही और आँचल के साये मे नींद की झप्पी लेगी और वो आँचल आज भी तड़पेगी उन आँखों को देखने के लिए उन्हे छूने के लिए।
पर मुझे गर्व है कि खुशनसीब आँखें मेरी है, और मुझे ये दोनों आँचलों का प्यार साथ है। भले ही एक पास और एक दूर हो पर क्या गम है दोनों ही आँचलों मे वही प्यार वही दुलार है।
भगवान इन दोनों आँचलों को सलामत रखे तकी जब भी मुझे इनकी जरूरत पड़े हमेशा ये दोनों मुझे थाम ली।।
— सरिता श्रीवास्तव

सरिता श्रीवास्तव

जिला- बर्धमान प्रदेश- आसनसोल, पश्चिम बंगाल