एक आशा रखें- यह भी गुजर जायेगा
कोरोना का कहर सारे विश्व में छाया हुआ है। अमेरिका व योरप के देश इस सें ऐशिया द्वीप के देशों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावित है। जिन्हें विकसित देश माना जाता है और जहां स्वास्थ्य सेवायें हमारे से कहीं अधिक हैं, वहां भी इसे रोकना असम्भव जैसा प्रतीत हो रहा है। अभी तक इस के प्रभाव से सारी दंनिया में छः लाख से अधिक व्यक्ति अपनी जान गवा बैठें हैं जब कि भारत में यह संख्या पचास हजार के लगभग है। इस मरज की कोई सफल दवाई अभी तक सामने नहीं आई हैं। ऐसे में हमारे सामने दो ही रास्ते हैं। पहला-भयभीत होकर निराश होकर चिन्तित रहें व अपनेे आप को दुखी करते रहें। चिन्ता का कारण है–मृत्यु का भय।
दूसरा ढंग है- एक आशा को लेकर चलें- यह भी गुजर जायेगा। बात अधिक पुरानी नहीं। सौ साल पहले तक पलेग चेचेक व हैजा से ही लाखों व्यक्ति मर जाया करले थे। भारत में ऐसा होता ही रहता था। हम सब ने पढ़ा कि 1918 में सपेनिश फलयू आया तो दो करोड़ व्यक्ति इस बिमारी ने निगल लिये। भारत में पलेग व हैजा जैसी महा बिमारियां आती ही रहती थी। करोना में तो मौत की दर सिर्फ 3 प्रतिशत है जब कि उन बिमारियों में 90 प्रतिशत होती थी व घन्टों व मिन्टों में ही व्यक्ति मर जाया करता था। गांव कं गाव खत्म हो जाते थे। शमशान पर ले जाने वाला भी कोई नहीं रहता था। उन सब भयानक कहे जाने वालें रोगों की वैकसिन व दवाई भी बनी और आज यह बिमारियां लगभग खत्म हो गई है। कहने का अर्थ यह है कि एक आशा को लेकर चलें ं—यह भी गुजर जायेगा।
कहतें है जहां आशा नहीं होती वहां कुछ भी नहीं रहता, यहां तक कि लोग भी खत्म हो जाते है और जब आशा होती है तो सब कुछ कायम रहता है। कठिन समय में भी, इस आशा की किरण का एक बहुत सरल उपाय है—ईश्वर में यह अटूट विश्वास की वह कल्याणकारी है, सब का भला ही करता है व मेरा भी भला ही करेगा। यर्जु वेद का यह मन्त्र—ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमाः शिवाय च शिवतराय च ।। इसी भाव को बता रहा है।
नमस्कार कल्याण स्वरूप,
नमस्कार सुखों के दाता,
नमस्कार हो शांित दाता,
नमस्कार सौ बार,
ईश्वर को शिव कह कर सम्भोदित किया गया है जिसका अर्थ है कल्याणकारी।
आज से लगभग 75 वर्ष पूर्व जब भारत का विभाजन हुआ, तो एक अनुमान के अनुसार 60 लाख व्यक्ति इस दौरान मारे गये, 5 करोड़ के लगभग दोनों समुदायों के लोग अपना घर बार व धन्धा छोड़कर नये स्थान पर कैम्पों में रहने पर और छोटे मोटे धन्धे करने पर मजबूर हो गये। परन्तु 50 साल बाद उन्हीं विस्थापित व्यक्तियों के पास घर बार, अच्छे व्यापार व नौकरिया सब कुछ बापिस आ गये, कारण उन्होने अच्छे दिन बापिस आने की उम्मीद को खोया नहीं और मेहनत करने में लगे रहे। कुछ ऐसे जो नुकसान का दुख ही मनाते रहे उनके लिये दुख की रात लम्बी ही होती गई।
कुछ आगे बढ़ते है। जब हमारे किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाती है तो मृत्ये वाले दिन, घर में का महौल बहुत दुख का होता है। सभी परिवार के लोग विलाप करते नजर आते है, परन्तु यदि आप 10 दिन बाद उसी घर में जायेंगे तो आप को शायद यह मालुम ही न हो कि 10 दिन पहले यहां कोई मौत हुई थी। कारण, दुख को भुलाकर आगे बड़ना ही जीवन है। पिछले दो महीनो में हमारे दो करोड़ के लगभग दूसरे प्रान्तों से काम पर आये मजदूरों को बहुत ही खराब समय का सामना करना पड़ा। इन में लाखों मजदूर सैकंड़ो कीलोमीटर अपने परिवार की महिला सदस्यों व छोटे बच्चों के साथ चलने पर मजबूर हो गये और हजारों ही मारे गये। इस में कोई दो राय नहीं कि प्रशासन की इस में बहुत गलतियां हैं परन्तु एक मुख्य कारण यह हुआ कि मजदूर लोग रेल गाड़ियो वं बसों का काफी समय तक बन्द रहने के कारण यह आशा खो बैठेे कि वे अपने घर कभी बापिस भी पहुंचंगे। एक साल के अन्दर ही आप देखेंगे कि यही मजदूर पहले से अधिक ,शक्तिशाली हो कर उभरेंगे। प्रशासन को भी उनके प्रति अपने रवैये को बदलना पड़ेगा और जो आर्थिक सुरक्षा आज केवल सरकार में काम करने वालों को ही उपलब्ध है उसका कुछ अंश इन्हें भी देना पड़ेगा। रात के अन्धेरे के बाद वह सुवह कभी तो आयेगी, ऐसा सोचने से जीवन आगे बड़ सकता है।
— नीला सूद