कविता

सागर की उत्ताल लहरें

सागर की उत्ताल लहरें
जाने कहाँ जाकर ठहरें
जगा मन में सदा उमंगें ,
लिए चंचलता ये लहरें ।

स्वच्छंद सदैव रहती हैं
बाहर किनारे बहती हैं
उछाल मारने को तत्पर ,
कहानी कोई कहती हैं ।

बाँध न इनको सकेंगे हम
पार नहीं कर सकेंगे हम
बच्चों सी मचलतीं ये तो ,
मना इनको न सकेंगे हम ।

दिव्य पुण्य अवतार कोई
आराम करें न ये सोईं
क्या मालूम कब हैं रोईं,
जिस तन लगे जाने सोई ।

दर्द उबले जब सीने में
सुख सदा पातीं जीने में
कुछ अपने में समोती हैं ,
खुश रहें वे दुख पीने में ।

लहरें लील भी लेती हैं
मानव को बहुत देती हैं
यात्रा का भी देतीं मज़ा ,
लहराकर मोती देती हैं ।

शिक्षा भी दे रहे किनारे
भँवर में कभी नहीं जा रे
जान अपनी नहीं गँवा रे ,
उसे नहीं चाहिए सहारे ।

— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘