गोरैया पक्षी का बिहार कनेक्शन
गोरैया पक्षी का बिहार कनेक्शन, इसे लेकर कहना है कि गोरैया पक्षी की एक युगल जोड़ी सप्ताह में एक दिन कहीं से उड़ मेरे आंगन आती हैं । मेरे यहाँ कबूतर है, सोचा- वे भी कहीं न कहीं घोंसले बनाकर टिक जाएंगी । परंतु नहीं, वह कबूतर को दिए चावल के दाने चुन फुर्र उड़ जाती हैं, शायद हम मानवों से भय खाती हैं । कटिहार- मालदा रेलखंड पर कुमेदपुर रेलवे स्टेशन है, मैंने 2 साल पीछे देखा था, वहाँ हजारों की संख्या में गोरैये रह रहे हैं, अभी भी है ! यह रेलवे स्टेशन का आधा हिस्सा संभवत: बिहार में है । कुमेदपुर रेल जंक्शन के बाद भागलपुर रेल जंक्शन के छतों के कोटरे में भी गोरैया का खोता व घोंसले दिखाई देते हैं । भागलपुर जंक्शन में भी देखने को हमें इस फुतकी गोरैये के संरक्षण की दरकार है । सरकार के आसरे पर नहीं, अपितु सामाजिक सरोकार को जगाकर ! इसके लिए महीन दाने खेत- पथारों में कुछ यूँ छोड़ देने चाहिए व छिटने चाहिए ।
गोरैया में ‘गो’ शब्द का हिंदी अर्थ ‘जाना’ होता है, क्या यही हो गया ? तो हे ‘आरैया’ ! यानी ‘आ’ से आ जाओ, यहाँ मैं अकेला हो गया हूँ ! रे फुतकी गोरैया कहाँ चली गयी तू ! 20 मार्च को विश्व गोरैया दिवस रही ! जिनके लिए दिवस, वह प्राणी अल्पसंख्यक हो गए हैं ! भागलपुर रेल स्टेशन परिसर में इस नन्हें परिंदों का गुलजार है। स्टेशन पोर्टिको के ठीक सामने के एक घना पेड़ पर सैकड़ों गोरैयों का आशियाना है। सुबह-शाम सूर्यास्त की लालिमा के साथ स्टेशन कैंपस में गोरैयों के टिक-टिक से व उनके चहचहाने वातावरण में संगीत घोल देता है । स्टेशन परिसर के रहवासी रेलकर्मियों ने कहा कि स्टेशन परिसर के गार्डेन में सजावटी पेड़-पौधे लगाए गए थे, वो काफी बड़े हो गए हैं। इसके पत्ते बहुत घने हैं, उसपर अमलतास की लत्तियाँ भी चढ़ गई है, जोकि सजावटी पेड़-पौधे पर एक आवरण लिए हो गया है, यही कारण है कि गोरैया अपने घोंसले को यहाँ बनाकर ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं !
भागलपुर के पक्षी वैज्ञानिक बताते हैं, प्रत्येक शाम गोरैया आते हैं, अपने-अपने रैन-बसेरों में रात बिताते हैं, फिर सुबह भोजन-पानी के फिराक में कलरव करते हुए फुर्र उड़ जाते हैं । वहां इसलिए आती हैं कि उसे रात बिताने के लिए झाड़ीदार पेड़ चाहिए। आसपास के आम, पीपल, बबूल, जामुन इत्यादि पेड़ों पर भी गोरैया घोंसले बनाकर रहते हैं । भागलपुर जंक्शन के पीछे और दक्षिण दिशा की बस्ती में भी गोरैया की तादाद है, जहाँ पक्के मकान की संख्या कम है, जहां भी गोरैया रहते हैं और महीन दाने चुगते हैं । यदि घर में घोंसला बनाई, तो वे सहज महसूस करेंगे । खिड़कियों, छज्जे, छतों पर, आँगन, दरवाजों पर उनके लिए दाना-पानी रखने से गोरैया चिक-चिक करते आएंगे । कड़ी धूप में पानी नहीं मिलने से गोरैया मर-खप जा रही हैं । वे घर पर छज्जे में रखे पुराने जूट, कूट के डिब्बों, मिट्टी के बर्तनों, जूट के टंगे थैलों, बेकार पड़ी सूप, टोकरी इत्यादि जगहों में भी घोंसले बना लेते हैं।
कटिहार, बिहार के मनिहारी, नवाबगंज में भी गोरैया देखने को मिलते हैं। यहाँ के स्थानीय पक्षीप्रेमी श्री काली प्रसाद पॉल बताते हैं कि गोरैया पालतू चिड़िया है। वे तो रोज गोरैयों को दाना-पानी देते हैं । इस माहौल में वे बड़ी शिकारी पक्षियों से खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं। वे अकसर मेरे मिट्टी और फुस के घरों के बीच बनी जगहों में अपने घोंसले बना लेती थी या आसपास के पेड़ों पर अपना ठिकाना तलाश लेती थी, किंतु अब पक्के मकानों और घटते पेड़ों के चलते उनके लिए घोंसले बनाने के लिए कोई जगह सुनिश्चित नहीं बची है। दैनिक जागरण के 20 जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित रपट के अनुसार, बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के बगहा प्रखंड की संतपुर सोहरिया गांव के 100 से अधिक घरों में गोरैया का बसेरा है । यह ग्रामीणों के 10 वर्षों के प्रयास का नतीजा है । विलुप्त हो रही गोरैया के संरक्षण की शुरुआत सोहरिया में वर्ष 2010 में हुई थी ।
यहाँ के दुकानदार श्री भगवान काजी को इन चिड़ियों से काफी प्यार है, उन्होंने गोरैयों को बचाने के लिए दुकान और अपने घर पर दाना-पानी रखने की शुरुआत की, शुरुआत में एक जोड़ा आती थी, फिर दर्जनों आने लगी और अब तो इस गांव के सौ से अधिक परिवार इसके संरक्षण में लग गए । घरों की छत पर तथा आँगन में दाना-पानी रखने लगे, फिर झुंडों में गोरैये आने लगे। सम्प्रति रपट के संवाददाता श्री सौरभ कुमार के अनुसार, गांव में इन गोरैयों की संख्या 2,000 से अधिक है, इसके साथ ही यहां बुलबुल आदि छोटी चिड़िया का बसेरा भी है । भगवान काजी के अतिरिक्त प्रेमचंद सोखित, जगदीश प्रसाद, भिखारी महतो, रूदल यादव, अविनाश साह, जयदेव तालुकदार, धर्मराज महतो, इंद्रजीत राय इत्यादि ग्रामीण गोरैया संरक्षण सहित पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं !