नारी- कितनी बेचारी
प्रकृति कहीं धरती जैसी अचल वस्तु पर लाखों की संख्या में वृक्षादि वनस्पतियों के रूप में अपना सौन्दर्य बिखरा रही है, तो कहीं चौपाये-दोपाये आदि विचार रहे हैं। बिल्ली-चूहा की दुश्मन है तो कुत्ता
बिल्ली का। इन्सान अपनी आवश्यकताओं के लिए जानवरों पर आश्रित हैं तो पशु
अपनी उदरपूर्ति एवं के आश्रय के लिए न चाहते हुए भी मनुष्य के आश्रित हो
गये हैं। दरअसल सृष्टिकर्ता अथवा ईश्वर ने जिस समय सृष्टि की रचना की थी
उसी समय उसे सुचारू रूप से चलाने के लिए यह गोल-गोल घूमता चक्र बना दिया।
ताकि सृष्टि का चल-अचल सब कुछ आपस में ताल-मेल से चलता रहे।
ईश्वर की इसी सृष्टि-रचना का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है मनुष्य।
जिसके पास मन-बुद्धि और आत्मा नाम की बहुत सी उपलब्धियाँ पाई जाती हैं।
पुरुष के अकेलेपन या यूँ कहें कि अधूरेपन को दूर करने के लिए (जन संख्या
की वृद्धि के लिए भी) नारी नाम का एक जीव भी अस्तित्व में लाया गया। यह
बहुत आवश्यक था, क्योंकि हमारे मनीषियों और समाज शास्त्रियों का कथन है
कि यदि ईश्वर नारी की रचना न करता तो पुरुष के मन में कोमल भावनाओं का
संचार कौन करता? (वैसे अपवाद तो होते ही हैं) और यह भी कि नारी न होती तो
पुरुष हिंस पशु ही रह जाता यहाँ तक कि शक्ति के बिना शिव भी शव ही मात्र
रह जाते।
यह तो हुई नारी की आवश्यकता लेकिन मेरा उद्देश्य तो उस षड़यन्त्र की बात
करना है जिसका शिकार यह नारी नाम का निरीह जीव अक्सर ही होता रहता है।
यह निरीह प्राणी, जिसे हम नारी कह कर पुकारते हैं, अक्सर ही इस धरती के
साहित्यकारों, मनीषियों एवं ज्ञानी-मानी विद्वद्जनों के चंगुल में फंसा
उनके षड़यन्त्रों का शिकार बना देखा जा सकता है। यह बात मैंने बिना किसी
आधार के नहीं कही अपितु मेरे पास इस बात के ठोस प्रमाण हैं जो नारी नाम
के इस प्राणी को इन तथाकथित विद्वानों के चंगुल में फंसकर छटपटाते रहने
की गवाही देते हैं। मुझे लगता है कि इन लोगों का कोई ‘स्टेटस’ ही नहीं
होता, अब यही देखिए न! एक ओर तो दुर्गा सप्तशती लिखकर नारी को देवी,
दुर्गा, शक्ति, चण्डी और न जाने क्या-क्या बना दिया (उस पर वश न चला
होगा, बेचारे भैरव ने पीछा तो बहुत किया था) भृतृहरि ने शृंगार शतक लिखकर
उसे (अर्थात् नारी को) सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना कहा फिर उसी भृतहरि ने
ही नारी की आलोचना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
अरे भई आप भी कमाल करते हैं। अब मूड का क्या? मूड सदा एक-सा तो रहता
नहीं, सो हमारे साहित्यकार-मनीषियों का भी मूड बदल गया, अब क्या था, आ गई
बेचारी की शामत। ये विद्वत-मण्डली किसे कब क्या बना दे ये तो इन लोगों के
मूड पर निर्भर है न?
तुलसीदास ने भी सम्भवतया रत्ना द्वारा दुत्कारे जाने पर और स्वयं को उसे
पीट सकने में असमर्थ पाया होगा, तभी भाषा का सहारा लेकर उसे पीटे जाने का
अधिकारी कहा होगा, वह भी ढोल के समान ही। इससे अधिक मूड बिगड़ा तो नारी को
नर्क की खान कह दिया, है न कमाल? ईश्वर ने तो जो बनाया सो बनाया ऊपर से
पॉलिश तो यही लोग लगाएंगे न? धन्य है प्रभु की माया। ये बुद्धिमान लोग
कभी तो एकदम आकाश पर बैठा देंगे और कभी पाताल से भी नीचे इन्हें यदि कोई
स्थान मिल जाए तो नारी को पहुँचाने में देर नहीं करेंगे और इन्हीं
चेष्टाओं में अपनी सारी बुद्धि का प्रयोग करने से कभी भी चूकेंगे नहीं,
मानो नारी न हुई प्लास्टिक की गेंद हो गई। जब चाहा, जिधर चाहा उछाल दिया
और फिर लपक लिया।
भारत जैसे महान देश की तो बात ही क्या है, पूरे एशियाई देशों में, पूरे
समाज पर, पूरे तन्त्र पर पुरुष जाति का वर्चस्व है इसी से तो वह धरती का
सर्वश्रेष्ठ प्राणी गिना जाता है। अब लाठी हमारे हाथ में है तो भैंस
हमारी क्यों न होगी? (यह बात अलग है कि अब यह नारी पुरुष के साम्राज्य
में सेंध लगाने लगी है।) वैसे देखा जाए तो नारी को अच्छा कम ही कहा गया
है, किन्तु शत्रु सिद्ध करने में ऐड़ी-चोटी का दम लगा दिया जाता है।
महिमा-मण्डित रानी कैकई के मुख से संत कवि तुलसी दास ने कहलवा ही दिया
है।
‘‘काने-कोरे-कूबरे, कुटिल कुचाली जान।
‘तिय’ विशेष-पुनि चेरि कह भरत भातु मुस्कान’’
स्त्री कुटिल होती है, कह कर भरत की माँ (अर्थात् स्त्री) मुस्कुराई भी।
यानि कि रानी कैकेई मान रही हैं कि स्त्री कुचाली (षड़यन्त्रकारी) होती
है। जबकि रानी कैकेई के पिता को, स्वयं ही राजा दशरथ द्वारा कैकेयी की
सन्तान को सत्ता देने के तात्पर्य से दिए गए वचन से मुकर कर कुचक्र तो
अवध की सत्ता के पुरुषों ने रचा था। लेकिन नारी-बेचारी? करे तो क्या करे?
जब इतने बड़े भक्त कवि तुलसीदास उससे कहलवा रहे हैं तो उसे कहना पड़ा, कैसे
न कहती? रामायण में रहना जो था उसे। बेचारे तुलसीदास को क्या पता था कि
कुछ सिरफिरे लोग असल बात का पता लगा लेंगे कि कैकेई के पिता को दिये वचन
की गवाह उसकी धाय मन्थरा थी। अलबत्ता यह बात सोचने की जरूर है कि स्त्री
होते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ने का फल उसे वैधव्य और लोकनिंदा के रूप
में भुगतना पड़ा?
जिस समय तुलसीदास ने यह कहलवाया था रानी कैकेयी से, उस समय कोई उनसे
पूछता कि वह नदी क्या रतना के कहने पर उफ़नी थी जिसे उन्होंने शव पर तैर
कर पार किया था? साँप भी पिछवाड़े सम्भतया उनकी पत्नि ने ही लटकाया होगा।
यूँ अगर तुलसीदास की ही बात को मान लें तो (राम वनवास का) कुचक्र तो
देवताओं (पुरुषों) का ही रचा हुआ था जिसमें तीन बेकुसूर औरतें फंस गईं।
इस बात के गवाह भी तुलसीदास ही हैं।
बेचारी देवमाता सरस्वती तो हर बार ब्लैकमेल होती है। देवता लोग मक्खन
बाजी करके उसे चाहे जिस की ज़बान पर बैठा दें।
‘सुन सुर विनय ठाड़ि पछिताती
भइऊँ सरोज विपिन, हिम राती।’ देवताओं के लिए वे सोचती हैं और कहे बिना
नहीं रह सकतीं।
‘ऊँच निवास नीच करतूती,
देख न सकईं पराइ विभूती।’ फिर भी कुछ कर नहीं सकती। नारी जो ठहरी, आखिर
उसे इन पुरुषों के बीच ही तो रहना है। जी हाँ!
‘अजस की पिटारी’ औरतों के सिर डाल देवताओं ने तो अपना उल्लू सीधा कर
लिया और बदनामी से भी बच गये। आइये तनिक नारी शब्द का सन्धि-विग्रह करें।
नारी दो अक्षरों के मेल से बना शब्द है। न$अरि बराबर नारी। अर्थात् वह जो
शत्रु नहीं है, न जाने कैसे वह पुरुष को शत्रु दिखाई देने लगी। पुरुष यदि
अपनी ही किसी मूर्खता के वशीभूत किसी संकट में फँस जाए तो इसमें नारी का
क्या दोष? उसने तो सदा ही पुरुष की सहगामिनी-सहयोगी और सहायक की भूमिका
निभाई है।
ऊपर वाले ने पुरुष की शरीर रचना कुछ ऐसी रची है कि वह सदा सुरक्षित है
(आखिर वह भी पुरुष ही है न?) रही स्त्री? तो वह अपनी शरीर रचना के कारण
ही सदा असुरक्षित है और मुसीबतें झेलती है। पुरुष एक पत्नी को जलाकर
दूसरी पा लेता है, बस धन चाहिए। अगर गाँठ में पैसा हो तो क्या करेंगे
पुलिस और क्या कर लेगा कानून? वे दोनों तो सदा पैसे वालों की जेब में पड़े
रहते हैं। पुरुष का जहाँ मन चाहा, जब तक चाहा घूम सकता हैऋ कोई पूछने
वाला नहीं। घर लौटना न चाहे अथवा घर न हो तो फुटपाथ पर पड़ा रहे, पार्क
अथवा स्टेशन पर रात काटे, कोई अन्तर नहीं पड़ता। स्त्री कर देखे तो ऐसा?
पुरुष के पास बुद्धि नाम की कोई वस्तु हो, यह आवश्यक नहीं है, फ़िर भी वह
बड़े मजे से स्त्री को मूर्ख कह देगा। यह उसका जन्म सिद्ध अधिकार जो ठहरता
है। स्त्री कितनी भी सशक्त होने पर पुरुष के शारीरिक बल का मुकाबला नहीं
कर सकती यह कड़वी सच्चाई है। (यह भी तो ऊपर वाले का पक्षपात ही कहा
जाएगा)। घिर जाने पर औरत बुद्धि बल से तो पुरुष के चंगुल से निकल सकती
है, शारीरिक बल से नहीं। पुरुष के बलात्कारी होने पर (प्रमाणित हो कर सज़ा
भुगतने पर) भी समाज में उसका सम्मान पूर्ववत बना रहता है, किन्तु नारी,
शोषण का शिकार होने पर भी दया की पात्र नहीं समझी जाती। प्रबुद्ध जन इस
बात पर कभी विचार नहीं करते कि सीता यदि रावण की कैद में रही तो इसमें
उसका क्या दोष था? क्या राम के आस-पास कोल-किरात और जंगली कबीले नारी
विहीन थे? राम भगवान थे तो सीता भी तो भगवती थी। फिर सीता ही को अग्नि
परीक्षा क्यों देनी पड़ी? क्या वे जानते नहीं थे कि सीता का अपहरण हुआ है?
क्यों नहीं राम ने अपनी शुचिता को भी प्रमाणित कर सीता को अपमान से
बचाया? दरअसल नारी होना ही सीता का सबसे बड़ा दोष था। नारी सीता थीं राम
क्यों देते अग्नि परीक्षा? नारी होना सीता का दोष नहीं अपराध था इसीलिए
तो उसे गर्भावस्था में निर्वासित होना पड़ा।
कितनी भी सशक्त होने पर नारी पुरुष को जलाने की तो दूर, प्रताड़ित करने
की भी नहीं सोचती ;अपवाद की बात अलग हैद्ध कारणवश देर रात तक घर से बाहर
रहने पर घर व समाज के हर सदस्य द्वारा लाँछित-प्रताड़ित होती है। यदि
दुर्भाग्य से अकेली रहती हो तो आस-पड़ौस को मनोरंजन का अच्छा मसाला मिल
जाता है। कमाल करते हैं, क्या आप बोलने वालों का मुँह पकड़ लेंगे जनाब?
लक्ष्मण ने यदि सूर्पनखा के नाक-कान काट लिए तो ठीक ही किया। क्या
अधिकार था उसे किसी पुरुष पर मोहित होने का? यह अधिकार तो पुरुष ने अपने
लिये सुरि़़़क्षत रखा है। क्यों नहीं अपनी भावनाओं और यौवन के वेग को
सँभाल पाई वह? लगवा दिया न पूरी नारी जाति पर दाग़। तभी तो नारी को शत्रु
और नरक की खान कहा जाता है।
विचारणीय मुद्दा यह है कि जब कुम्हार एक ही चाक पर एक ही ढेर से मिट्टी
लेकर कई तरह के बर्तन बनाता है, फ़िर बर्तन गुण-दोष में अलग नहीं होते।
प्रकृति के चाक पर घड़े जाने वाले ऐसे ही दो बर्तन स्त्री और पुरुष हैं,
फिर कैसे एक जीव पूरी सृष्टि का शत्रु और दूसरा मित्र हो गया। यदि नारी
पुरुष की शत्रु है, नरक की खान है तो पुरुष आस्तीन का साँप पालता ही
क्यों है? क्यों शत्रु पर अपने खून पसीने की कमाई को खर्च करके उसे
सजाता-सँवारता है फिर उसे शत्रु सिद्ध करने के लिये एड़ी-चोटी का जोर
लगाता है। पुरुष या तो सच को स्वीकारना नहीं चाहता अथवा नारी को शत्रु
कहने वालों की बुद्धि का दीवाला निकल गया है वे ही जाने।