उम्र के रेगिस्तान में नारी के विकास में नागफनी काव्य धारा नहीं बाढ़ बनी है
जीवन की पगडंडियों पर उम्र बिताते ‘क्या खोया क्या पाया’ जब एक प्रश्न चिह्न बनकर सामने आता है तो लेखा-जोखा दिखाता है कि नफ़ा कम, नुकसान बहुत ज़्यादा हुआ है। कहीं न कहीं मानवता मात खाती आ रही है और अगर मानवता की इस अस्थिर स्थिति का कहीं कोई दोष है तो किसी हद तक उसकी जिम्मेवार भी हमारी सामाजिक मानसिकता है।
जहां मनुष्यता टूटती है वही मनुष्यता के मूल्य भी टूटते हैं। जिंदगी बेमानी सी होने लगती है, रिश्तो की ईंटों में अनबन होने लगती है, मानवता के चेहरे पर दरारें ही दरारें अपने आप को विकसित करती हैं। उम्र के रेगिस्तान में सिलसिला मानवता से लेकर अमानुषता तक है, जहां सामाजिक चक्रव्यूह से निकलने की कोशिश में नारी संघर्षमय राहों पर अपनी पहचान पाने की समूची चुनौतियां स्वीकार करती है। शायद वह उसे अपनी नियति मान बैठी है और वजूद के नवनिर्माण की राहों पर जिंदगी की लड़ाई लड़ते, ज़ख्मी-लहूलुहान होते हुए अपने ही लहू से धरती रंग देती है। धरती तो माँ होती है पर यह कैसी माँ है, कैसी उसकी मजबूरी है जो औलाद की बर्बादी की साक्षी होते हुए चीख़ों की चीत्कार सुनते हुए भी उन बच्चियों की रक्षा करने में असफल है। क्या मानवता की चौखट पर सुरक्षा के सभी दरवाजे बंद हो गए हैं? नव पीढ़ी की इन नवंकुरित नारियों की रक्षा की जवाबदारी किसकी है? क्या नाम मात्र के माई-बाप, भाइयों की, समाज के स्वार्थी ठेकेदारों की?
नारी को भोग वस्तु मानते हुए सामान की तरह बेचने और खरीदने के इस सिलसिलेवार जुर्म के ठेकेदारों के चेहरों को बेनकाब करना किस की जवाबदारी है? औरत की इज़्ज़त को तार-तार करने वाले दरिंदे उन जिंदा लाशों को दफनाने के लिए धरती माँ का सीना चीरते रहते हैं…! ऐसी विनाशकारी असुरक्षा का साम्राज्य अगर यूं अपनी जड़ों को सींचता रहेगा, तो दिल और दिमाग में एक विचार कौंध उठता है कि कहीं आधुनिकता व पश्चिमी सभ्यता में जब्त होती हुई नई पीढ़ी की मानसिकता विकृत तो नहीं हो रही है? यह कैसा विकास है जहां पतन का बोलबाला हो रहा है? स्त्रियों के प्रति ऐसे विनीत व्यवहार में तब तक परिवर्तन मुमकिन नहीं जब तक बीमार मानसिकता में बदलाव नहीं आ जाता।
क्या नारी तब तक अपने अपने हिस्से का बनवास भोगती रहेगी? पंजाब की प्रख्यात कवित्री, कहानीकार व उपन्यासकार अमृता प्रीतम नारी के जीवन में धँसकर देखा, महसूस किया। उनकी कलम ने नारी के ज़हन की त्रासदी को पहचानाते हुए अपने तेवरों से उनके मनोभावों को जुबान देकर अभिव्यक्त किया। उनकी एक कविता ‘पुल’ का यह अंश नारी के वजूद के बिखराव की गाथा है–
“कल हम दोनों ने/ एक पुल जलाया था और एक दरिया के/ किनारों की तरह नसीब बांटे बदल झटके/ तो एक बदन की वीरानी इस किनारे थी/ और एक बदन की वीरानी उस किनारे……!”
आज की बदलते युग में नारी अपनी पहचान पा रही है और कलम को हथियार बनाकर, बेझिझक अपनी सोच को अभिव्यक्त भी कर रही है। अपनी जात का मान सम्मान उसका अपना सम्मान है और उसका आदर अनादर उसका खुद का अनादर है। वह कोई अस्तित्वहीन वस्तु नहीं जिसके साथ अव्यवहार करके उसके अस्तित्व को नकारा जाए। मेरी एक कविता का अंश भी कुछ यूं ही कह रहा है—
“नारी कोई भीख नहीं
न ही मर्द कोई पात्र है
जिसमें उसे उठाकर उंडेला जाता है
जिसे उलट-पुलट कर देखा जाता है
उसके तन की खुशबू का
मूल्य आँका जाता है
खरीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है…!
तद पश्चात उसे
तोड़ मरोड़ कर यूं फेंका जाता है
जैसे कोई कूड़ा करकट फेंकता है…!
अब अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे हाथ कट जाने चाहिए
जो औरत को
अपना माल समझकर
आदान-प्रदान की तिजारती रस्में
निभाने की मनमानी करते हैं
यह भूल जाते हैं—
वह जिंदा है, सांस ले रही है,
आग उगल सकती है….
नहीं! सोच भी कैसे सकते हैं?
वे, जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के
सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहे हैं
गंद दुर्गंध उनकी सांसों में
मांसभक्षी प्रवृती व्यापित करती है
वही तो हैं, जो उसके
तन को गोश्त समझकर
दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेते हैं
भूल जाते हैं कि
कभी वह गले में
फांस बनकर अटक भी सकती है…!
‘स्त्रीत्व पर मंडरा रहे काले बादल’ नामक संपादकीय में प्रभा जैन ने स्त्री के मांगो और अधिकारों पर रोशनी डालते हुए लिखा है-
“पुरुष को उसके अधिकार विरासत में मिले हैं
जब कि स्त्री को अपने अधिकार मांगने पड़ते हैं,
छीनने पड़ते हैं, या उनके लिए लड़ना पड़ता है।”
सवाल उठता है क्यों? किस से मांग रही है वह अपने अधिकार? साहित्य के क्षेत्र में कोरे कागजों पर स्त्री को देवी व पूजा स्थान मिला है, उस परिधि के बाहर नारी प्रदर्शित है, एकाकी है, अज्ञान है, देह है और सिर्फ भोग्य-वस्तु। यहाँ तक कि उसे सीता की तरह अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। वर्तमान समय में अपने भीतर और बाहर के द्वंद्व की सीमाओं से निकलकर नारी अपने मन की कशमकश को काव्य में व्यक्त कर रही है जिसमें परिवर्तनवादी तत्व भी मौजूद है। यथार्थ की धीमी आंच पर अभिव्यक्त विचारधारा शोषण, अत्याचार, अमानुशता के विरोध में एक मत का उच्चारण है। तेलुगु भाषी सुश्री शीला सुभद्रा देवी की कविता ‘बवंडर’ के अंश का हिंदी अनुवाद भी इसी भाव के पक्ष में कह रहा है-
“उन मनुष्यों के दिलों में
घोंसला बना रही है निराशा
उनके घरों के सामने कूड़े करकट के ढेर
उनके जीवन को खाये जा रहे हैं
समस्याओं के वलय
उन घरों के चारों ओर पड़े हैं गंदे नाले॥” (अनुवाद:शांति मिशन)
क्या यह परिभाषा किसी भी तरह मानवता के लिए शौर्य, मर्यादापूर्ण की संकेतात्मक उपलब्धि है? क्यों ये नारी को संयंत्रों के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करने पर उकसाते हैं? क्यों अव्यवस्था के खिलाफ जागृत करने में सहयोगी बनते हैं। नारी अपनी जाति के अनुभव व व्यक्तिगत आपदाओं व राजनीति की यातनाएं भी काव्य-लेखन के मध्यम से सामने ला रही है। ऐसी कविताएं रेत के बवंडर बनकर आज जमाने को झकझोर रही हैं। हमारे सिंध की कवित्री अतिया दाऊद ने भी इसी खौलते उबाल को हवा देते हुए अपनी चीखती हुई आकांक्षाओं को ‘खोटे बाट’ नामक कविता में अभिव्यक्त किया है –
“खोटे बाट मज़हब की तेज़ छुरी से
कानून का वध करने वालो
तुम्हारा कसाई वाला चलन
अदालत की कुर्सी पर बैठे लोग
तुम्हारी तराजू के पलड़ों में खोट है
तुम्हारे समूरे बाट खोटे हैं
आज साहित्य भी मानवीय अजनबीपन, असुरक्षा और रूढ़ नैतिक मान्यताओं के दंश से लहू लुहान है, उससे बच पाना असंभव है। इसी दायरे के संघर्षमय जीवन को जानते-पहचानते-जीते हुए टॉलस्टॉय का कथन कुछ संकेतात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर रहा है- “प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन हो रहा है केवल अपने को कायम रखने के लिए उसकी नींव को सुदृढ़ बनाना है”
और आज नारी चेतना जागृत हुई है। शिक्षा की रोशनी में वह खुद की पहचान पा रही है। भले ही परंपरागत अवधारणाओं में उस के रास्ते में दीवारें खड़ी कर दी हों, फिर भी वह खुद को ज़ाहिर करने के रास्ते तलाश करने में लगी है। रास्ता न मिलने पर भी वह दीवारों के भीतर की दरारों से अपनी राह पाने को आगे बढ़ रही है। मुझे इस संदर्भ में भारत भूषण आर्य की ये पंक्तियां याद आ रही है जो कहती हैं….
सजग रातों की / जागृत क्षणों की
बोलते मौन की/ युग-बोध के कागज पर
उकरी इबारत ही तो कहीं कविता नहीं
ओ मेरे सृजनशील मन!
हाँ इसी सृजनशील मन की हांडी में जब बाढ़ आती है तो प्रवाह को रोक पाना नामुमकिन है। अमृता प्रीतम के शब्दों में यही भाव खौल रहा है —
“मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क की आंच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा!”
और इसी खोलते उबाल को हवा देते, जज़्बों की नैया में नारी आज पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हुए, अपने कार्य क्षमता व अभिव्यक्ति से अपना मक़ाम पा रही है। अपने अस्तित्व के नए आयामों को छू रही है। इसी बात का समर्थन धर्मवीर भारती जी की कविता की ये पंक्तियां कर रही हैं –
“क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है
हो चुकी हैवानियत की इंतेहा
आदमीयात का अभी आगाज़ बाकी है
लो मैं तुम्हें फिर नया विश्वास देती हूँ
नया इतिहास देती हूँ
कौन कहता है कि कविता मर गई !”
अब मेरे विचारों की उथल पुथल कह रही है-कहीं कविता नारी तो नहीं”
— देवी नागरानी