मर्दवादी सोच या नामर्दवादी चिंतन !
मर्दवादी सोच या नामर्दवादी चिंतन ! मैंने अपने दादाजी को कभी नहीं देखा, मेरी दादी के पैर छूते हुए । पिताजी को भी नहीं देखा है, माँ के चरणस्पर्श करते हुए, जबकि दादी को दादा के और माँ को पिता के चरणस्पर्श करते देखते आया हूँ । कहने को दादी, दादा की और माँ, पिता की अर्द्धांगिनी हैं।
इतना ही नहीं, दोनों यानी पति-पत्नी एक-दूजे के लिए बने होते हैं ! यह सिर्फ़ कहने भर को मर्दवादी सोच है । परिवार में एक पत्नी को पति के समक्ष बराबरी का दर्ज़ा हासिल नहीं है, यहाँ तक दोनों हमउम्र के नहीं होते ! महिलाओं को पुरुषवादी सोच से बाहर आने होंगे, तभी स्त्रीशक्ति की अपनी महत्ता बची रह पाएगी !
तब इसे आप परम्परा और संस्कार कहेंगे ! फिर प्रत्येक फेमिनिज्म व्यक्तित्वों को कुपरम्परा और कुसंस्कारयुक्त विचारधाराओं को त्यागनी चाहिए । लोकतंत्र हो या रिश्ते ‘असहमति’ जरूरी है, इसे अगर आप मर्दवादी सोच कहते हैं, तो यह फ़ख़्त नामर्दवादी चिंतन है !