मर्दवादी भोगतंत्र
अमृता का अंत दंश का अंत नहीं है, सिर्फ श्रद्धा का अंत है, लज्जा का अंत है । इड़ा का अंत नहीं है, क्योंकि औरत का अंत उनकी देह का अंत नहीं है । मनु के मर्दवादी भोगतंत्र जिस लिप्सा से जुड़ा हुआ है, वह देह पाने के तत्वश: है, किन्तु इस कहानी की नायिका ने स्वयं अपनी देह को नायक के हवाले की, उसमें भी नायक के समक्ष स्वयं को श्रद्धेया के रूप में पेश करके । नायक ने उस देह को पूजा, सहवास करने से पूर्व अक्षत चढ़ाए….. यह जानते हुए भी कि नायिका मूर्त्तियों के संग्रह की शौकीन है, किन्तु पूजा की नहीं ! पूजा करना मर्दवाद है !