लेख

समन्वय का महाकाव्य है, तुलसी का रामचरितमानस

हिंदी साहित्य-धरा पर महाकवि तुलसीदास की महान कृति रामचरितमानस देवलोक से उतरी पुण्य पावनी गङ्गा की निर्मल धारा है। उनके सम्पूर्ण साहित्य में प्रेम,भक्ति और दर्शन का जो समन्वय है, वह प्रयागराज का महासंगम है, जिसमें अवगाहन करने मात्र से जन्म-जन्मान्तरों के पाप क्षीण हो जाते हैं। एक भिखारी की कुटिया से लेकर महलों के पूजा घरों में स्थापित होने वाला रामचरितमानस विश्व का एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी चौपाइयां, दोहे और छंद, मन्त्र के रूप में जपे जाते हैं। देश की न्यापालिका में न्याय की गुहार लगाते हुए अधिवक्ता मानस के पात्रों और घटनाओं को उदारहण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसे अस्वीकार करने से पूर्व न्यायधीश को भी सौ बार सोचना पड़ता है। रामचरितमानस ही दुनिया का एक मात्र ऐसा काव्यपाठ है, जिसका भारत के साथ- साथ पूरे विश्व में अहर्निश अखण्ड पाठ होता रहता है। अवधी भाषा में रचित यह काव्य पाठक को भाव के महासागर की गहराई में उतारकर आनंद के अनमोल मोती प्रदान करता है, तो विद्यार्थियों, शोधार्थियों और भाषाविदों के लिए यह निरन्तर शोध का विषय रहा है। भक्ति कालीन राम मार्गीय काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास के महान ग्रन्थ रामचरितमानस को आज पंचम वेद का सम्मान प्राप्त है।
तुलसीदास के जन्म स्थान और समय के संबंध में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1554 विक्रमी संवत, श्रावण शुक्ल सप्तमी तथा मृत्यु 1680 में मानी जाती है। शिव सिंह सेंगर और रामगुलाम द्विवेदी ने तुलसी का जन्म स्थान राजापुर जिला बांदा माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी इसी मत के समर्थक हैं। जनश्रुतियों के आधार पर यह माना जाता है कि तुलसी अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने होने के कारण उनके पिता आत्माराम दुबे ने त्याग दिया था। तुलसी के सम्पूर्ण जीवन की विशद व्याख्या अमृतलाल नागर ने उपन्यास ‘मानस के हंस’ में की है, जो सहज उपलब्ध है।
महात्मा बुद्ध की भांति तुलसीदास का जन्म भी विषम परिस्थितियों में हुआ था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि जिस समय तुलसीदास का जन्म हुआ था। उस समय के समाज के सम्मुख कोई उच्च आदर्श नहीं था। समाज के उच्च स्तर के लोग भी अज्ञानता कीचड़ में फंसे हुए थे। निचले स्तर के लोग स्त्री और पुरुष दरिद्र, अशिक्षित और रोग- ग्रस्त थे। वैरागी हो जाना सामान्य बात थी, जिसके घर की संपत्ति समाप्त हो गई या उसकी पत्नी मर गई, उसके लिए संसार में कोई आकर्षण नहीं रहा, वह साधु हो जाता था। देश साधुओं से भरा पड़ा था। चारों ओर अलख की मसालें जल रही थीं, लेकिन इनका प्रकाश सत्य का मार्गदर्शन करने में असमर्थ था। नीच समझी जाने वाली जातियों में कई पहुंचे हुए साधु हो गए थे। उनमें आत्मविश्वास का संचार हो गया था, किन्तु शिक्षा तथा संस्कृति के अभाव में विश्वास दुर्बल गर्व का रूप धारण कर गया। समाज में धन की मर्यादा बढ़ रही थी। दरिद्रता हीनता का लक्षण समझी जाती थी। पंडित और ज्ञानियों का समाज में कोई संपर्क नहीं था। सभी अपने-अपने धर्म के ठेकेदार बने बैठे थे। ऐसे समय में एक ऐसी आत्मा को अवतरित होने आवश्यकता थी। जो समाज को चेतना की दिशा से सके। अज्ञान, अधर्म, कुरीतियों,पाखण्ड, जातिवाद के अंधकार में तुलसी प्राची के मुखमण्डल पर भगवान भास्कर की भांति उदित हुए।
अंधकार में भटकते हुए मानवों का रुदन तुलसीदास के कवि हृदय में तीर की तरह चुभा। इस पीड़ा से दुःखी वह महामानव हिंदू जनता की आवश्यकता को समझने में लग गया और “सिया राम मय सब जग जानी” के सिद्धांत से अनुप्राणित होकर अपने काव्य के निर्माण में जुट गया। जीवन को सफल और सार्थक करने वाले सभी तत्वों को तुलसी ने अपने काव्य में स्थान दिया। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का लोक में जो सम्मान हुआ वैसा किसी अन्य काव्य रचना के लिए दुर्लभ है। इस प्रकार तुलसी ने राम काव्य रचकर जो भागीरथी प्रयत्न किया, वह तुलसी से पहले और बाद आज तक नहीं हो सका।
राम प्रसाद मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘तुलसी के अध्ययन की नई दिशाएँ’ में लिखा है कि तुलसी विश्व-साहित्य के वाल्मीकि, व्यास, कालिदास या होमर, दांते, शेक्सपियर, फिरदौसी के साथ-साथ एक स्रष्टा- दृष्टा महाकवि हैं। एक महानतम विश्वकवि हैं। उनका रामचरितमानस, बाइबिल के साथ-साथ संसार का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। जिसके मौलिक रूप का पाठ भारत, नेपाल, मॉरीशस, गुयाना, फिजी, सूरीनाम इत्यादि देशों में प्रचलित है तथा जिसके संस्कृत, मैथिली, मलयालम, नेपाली अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, फारसी इत्यादि भाषाओं में अनुवाद विद्यमान है। समर्थ गुरु रामदास एवं संगीत सम्राट त्यागराज भी तुलसीदास से प्रभावित थे। उनका व्यक्तित्व, काव्य, धर्म-रक्षा एवं संस्कृति का संगम है। जहाँ वे काव्य के क्षेत्र में वाल्मीकि और कालिदास के समकक्ष ठहरते हैं, वही धर्म रक्षा में वे शंकराचार्य के समान है।
तुलसी सच्चे लोकनायक थे। उन्होंने समाज का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर समाज को समझा और धर्म के नाम पर बिखरे हुए समाज का समन्वय करने में सफल हुए।
दर्शन के क्षेत्र में तुलसी का समन्वय अद्वैतवाद और
विशिष्टाद्वैतवाद का है। विनयपत्रिका का यह पद इसका प्रणाम है।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल करि मानै।
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सौ आपन पहचानै।।
द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा यद्यपि गोस्वामी जी रामानुजाचार्य के अनुयाई थे, इस कारण विशिष्ट अद्वैतवाद को मानते थे। इसी कारण आपने जीव को ईश्वर का अंश कहकर ईश्वर की भांति चेतन- अविनाशी आदि कहा है।
तुलसी ने देखा कि योग नगरी काशी में शैव और वैष्णव भक्त अपने-अपने आराध्य को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। केवल इसी बात पर तलवारें निकल आती थीं कि शिव बड़े या विष्णु। तुलसी इसे देखकर बहुत आहत हुए। विनय पत्रिका में पहला पद गणेश वंदना का लिखा। साथ ही तीसरे पद से दसवें पद तक शिव स्तुति की। रामचरितमानस में रामेश्वर स्थापना पूजन के बाद शिव की महत्ता स्वीकार करते हुए तुलसी लिखते हैं।
सिव द्रोही मम भगत कहावा,
सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा।
संकर बिमुख भगत चह मोरी,
सो नारकी मूढ़ मति चोरी।।
संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥
सामाजिक क्षेत्र में तुलसीदास का समन्वय बहुत महत्वपूर्ण है। यह काम उन्होंने नहीं किया होता तो राम दशरथ के पुत्र मात्र ही होते। प्रोफेसर फूल चंद जैन सारंग ने ‘हिन्दी और उसके कलमकार’ नामक पुस्तक में लिखा कि सामाजिक समन्वय के रूप में तुलसी ने रामराज्य का आदर्श उपस्थित कर आदर्श जन समाज का संगठन किया और उसमें लोक-धर्म की व्यवस्था की। राम,सीता लक्ष्मण, हनुमान जैसे महान चरित्रों की अवतारणा कर तुलसी ने हिंदू जाति को समाजशास्त्र, लोकशास्त्र और चरित्र संबंधी नए आदर्श दिए। उन्होंने आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पत्नी,आदर्श भाई और आदर्श सेवक के उज्जवल चरित्र देकर जनजीवन को उच्च बनाने में की प्रेरणा दी। मानस के उत्तरकांड यह दोहा इस बात का प्रमाण उपस्थित करता है।
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग
तुलसीदास ने किसी भी क्षेत्र में समन्वय को नहीं छोड़ा। तुलसी के काल में राजा और प्रजा के बीच गहरी खाई बनती जा रही थी। इस खाई को दूर करने के लिए तुलसी ने रामचरितमानस में राजा और प्रजा के कर्तव्यों का निर्धारण करते हुए दोनों के सम्यक रूप की व्यवस्था की।
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥
निर्गुण और सगुन का भेद भी उन्होंने बालकाण्ड की इन चौपाइयों से दूर कर समन्वय किया।
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई
निष्कर्ष रूप में कहा जासकता है कि तुलसी का समस्त काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। मानव – जीवन का ऐसा कोई अंग नहीं जिस पर उन्होंने विचार न किया हो। लोक और शास्त्र का समन्वय, गृहस्थ और वैराग्य का समन्वय भक्ति और ज्ञान का समन्वय भाषा और संस्कृति का समन्वय निर्गुण और सगुण का समन्वय कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय पंडित और अपाण्डित्य का समन्वय। रामचरितमानस प्रारंभ से लेकर अंत तक समन्वय का महाकाव्य है।

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल[email protected]