पिताजी की सीख
संस्मरण
पिताजी की सीख
यह जुलाई, सन् 1989 की बात है। पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा, “बेटा, अब तुम बड़े हो चुके हो। तुम्हारी दीदी भी शादी करके अपने ससुराल चली गई है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि अब से तुम घर के छोटे-मोटे काम किया करो।”
मैंंने कहा, “ठीक है, बताइए मुझे क्या करना है ?”
उन्होंने कहा, “अब से तुम मेरे और अपने कपड़े खुद इस्तरी करो। आओ, मैं तुम्हें सिखाता हूँ।”
उस जमाने में आजकल की तरह हमारे घर में इलेक्ट्रिक आयरन नहीं हुआ करता था। लोहे के आयरन में कुछ कोयला और दो-तीन अंगारे डालकर पहले उसे गरम करते थे, फिर सावधानीपूर्वक उसे कपड़ों पर फेरते।
एक बार देखने के बाद ही मैंंने पिताजी से कहा, “अब मैं ये काय खुद से ही कर लूँगा।”
पिताजी ने हौंसला अफजाई की, “व्हेरी गुड। मुझे पता था, कि तुम एक बार में ही सीख जाओगे।”
परंतु ये क्या, कुछ ही दिन बाद आयरन करते हुए पिताजी की एक नई शर्ट पर एक छोटा-सा अंगारा गिर गया और एक सिक्का के आकार का छेद हो गया। मैं डर गया कि अब पापा की डाँट पड़ेगी।
डरते हुए मैंने उन्हें यह बात बताई। आशा के विपरीत वे बिल्कुल भी नाराज नहीं हुए। बोले, “कोई बात नहीं बेटा, मैं इसकी तुरपाई करवा लूँगा। हो जाती है सीखते समय ऐसी गलती। आगे से ध्यान रखना। ठीक है।”
आज इस बात को याद कर सोचता हूँ कि यदि पिताजी उस दिन मुझे डाँटते और भविष्य में इस्तरी करने से मना कर दिए होते, तो शायद मैं कभी यह काम सीख ही नहीं पाया होता।
मुझे गर्व है कि जब तक मैं पिताजी के साथ रहा, उनके कपड़े मैं ही इस्तरी करता। आज भी मैं अपने कपड़े खुद ही इस्तरी करके पहनता हूँ। इससे न केवल आत्म संतुष्टि मिलती है, बल्कि प्रतिमाह सैकड़ों रुपए की बचत भी होती है।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़