जंगल के असली दावेदार
‘नक्सलवाद’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई है। साम्यवाद के सिद्धान्त से फ़ौरी तौर पर समानता रखने वाला आदिवासी आंदोलन कई मायनों में अलग भी था। बाद में इसे माओवाद से जोड़ दिया गया। हालात तो आज भी नहीं बदले हैं।
आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं। जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं। आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं।
सब कुछ वही है। जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा। ‘सत्याग्रह’ के अनुसार उनकी कृति महत्वश: ही ये संत व चमत्कारी पुरुष आज भी झारखंड ही नहीं, देश-दुनिया के लोगों में चिरनित बसे हैं ! यही तो अमरता है। बरक्स, महाश्वेता दीदी की याद आ जाती है….