6 प्रेमाश्रित क्षणिकाएँ
1.
मन स्पर्श
छूकर मेरे मन को
क्या तूने क्या इशारा ?
बदला यह मौसम !
क्या सच में
या यूँ ही !
अहसास एक गारंटी
या वारंटी ही सही !
पर सच्चाई में लोग
मिटते चले जाते हैं,
ऐसा क्यों जग सारे ?
2.
विविध भारती
जब हम साथ-साथ हैं,
तो विविध भारती भी साथ है !
अब भी रेडियो जहाँ
‘मन की बात’ लिए
सुर्खियों में है !
तभी तो मेरे पास
न टीवी है, न टीवा !
रेडियो है, दादायुगीन !
यह बात भी तो दमदार है
कि गरीबों का सहारा !
रेडियो यानी आकाशवाणी,
जय हो प्रकाशमणि !
3.
मान जा दिलरुबा
दिलरुबा आ भी जा !
आखिर क्यों और कैसे ?
जब सोशल डिस्टेंसिंग ही नहीं,
फिजिकल डिस्टेंसिंग भी है !
यही तो है जमाना,
हसीन है दुनिया !
जिनमें लग गयी है आग,
फैल गयी है जहर,
लिए कोरोना कहर !
4.
पुरुष भी एक पहेली
एक रेखा है,
एक जया
और एक ही अमित है !
जो सबके मीत है,
वह भी अमिट !
मिट जाने की कसम न खाने के
सिफर एक सफर !
यही तो पहेली है,
पुरुष भी एक पहेली !
5.
टपोरी दिल
कहते हैं हर सदी में
ऐतिहासिक दीवाने हुए हैं,
क्या खोये ? क्या जीये हैं ?
सच की साथी के विन्यास के भरोसे
कुछ भी टपोरी नहीं है !
क्या यही गढ़वाल पौड़ी सही है !
कौन ठिकाना ?
आराम हराम के साथ
किस बेचैनी के साथ
हम कायम हैं यहाँ !
6.
सम्प्रदायक
संभालना जिसे और जब हो !
यह आकांक्षा हो सकती है,
अपेक्षा नहीं !
यह किसी भगदड़ के सापेक्ष नहीं,
उन्मूलन के सापेक्ष है !
जो निरपेक्ष मान लिए हैं !
विद्रोह और विक्षोभ के सापेक्षतः
सबकुछ आरामदायक नहीं,
अपितु है सम्प्रदायक भी नहीं !
जय हो, भय हो, क्षय हो !