संत विनोबा भावे ( हिंदी के अनन्य भक्त )
हिंदी के अनन्य भक्त
संत विनोबा भावे
“मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूं परंतु मेरे देश में हिंदी की इज़्ज़त न हो यह मैं सहन नहीं कर सकता |”
यह उद्गार है उच्च कोटी के विचारक दार्शनिक समाजसेवी एवं सर्वोदय पदयात्रा और भूदान के महान प्रवर्तक संत विनोबा जी के नाम से विख्यात विनायक नरहरि भावे के| इन का जन्म 11 सितम्बर, 1895 को महाराष्ट्र के कुलाबा जिले के गगोडा गांव में हुआ | मात्र 10 वर्ष की आयु में ही उन्होने ब्रह्मचर्य का पालन एवं राष्ट्र की सेवा करने का निश्चय किया जिसका उन्होंने आजीवन पालन किया | 15 वर्ष की उम्र में उन्हें विद्धालय में दाखिला कराया गया | मैट्रिक के बाद वे बड़ोदा काँलेज गये , परंतु जैसे ही उन्होंने यह महसूस किया कि उनके भाग्य में मात्र डिग्री के लिये पढ़ना नहीं लिखा है उन्होंने अपने सर्टिफिकेट जला डाले |
सन् 1916 में महात्मा गांधी के भाषणों से प्रेरित होकर , अपने माता- पिता से पूछे बगैर साबरमती आश्रम में गांधी जी के साथ जुड़ गये | यहीं गांधी जी ने प्यार से उनका नाम “विनोबा” रखा | गांधी जी ने उनके पिता को लिखा – “आपका पुत्र मेरे पास है , उसने इतनी कम उम्र में जो तेज और तप हासिल कर लिया उसे प्राप्त करने में मुझे वर्षों लग गये|”
विनोबा जी का झुकाव आध्यात्मिकता और स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ अधिक था | विनोबाजी ने अपने जीवन में सामाजिक, आर्थिक उन्नति के लिये लगातार काम किया| वे उच्चकोटी के मौलिक विचारक और दार्शनिक राष्ट्रवादी होने के साथ साथ अत्यंत कर्मठ, आदर्शवादी और मननशील निबंध लेखक थे| उनके विचार और कार्य हमारी सांस्कृतिक परम्परा “वसुधैय कुटुम्बकम “ के अनुकूल थी | उनकी ये बातें केवल सैद्धांतिक नहीं थी बल्कि उन्होने व्यवहार रूप में भी करके दिखाया था | उन्होंने अपना सारा जीवन गांधीजी के आदर्शों पर बलिदान कर दिया | राष्ट्र भाषा हिंदी और प्रंतीय भाषाओं के वे जबर्दस्त हिमायती थे जिसे उनके निम्न उद्गारों से समझा जा सकता है|
“ मैंने हिंदी का सहारा न लिया होता तो कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से केरल के गांव-गांव में जाकर मैं भूदान-ग्राम दान का क्रांतिपूर्ण संदेश जनता तक न पहुँचा सकता | यदि मैं मराठी भाषा का सहारा लेता तो महाराष्ट्र से बाहर और कहीं काम न बनता | इसी तरह अंग्रेजी भाषा लेकर चलता तो कुछ प्रांतों में काम चलता ,परंतु गांव गांव में जाकर क्रांति की बात अंग्रेजी द्वारा नहीं हो सकती थी | इसलिये मैं कहता हूं कि हिंदी भाषा का मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है , इसने मेरी बहुत बड़ी सेवा की है |”
“प्रत्येक प्रांतीय भाषा का अपना अपना स्थान है | मैंने अनेक बार कहा है कि जिस प्रकार मनुष्य को देखने के लिये दो आंखों की आवश्यकता होती है, उसी तरह राष्ट्र के लिये दो भाषाओं प्रांतीय भाषा और राष्ट्र भाषा की आवश्यकता होती है | इसलिये हम लोगों ने दो भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य माना है | भगवान शंकर का एक तीसरा नेत्र था जिसे ज्ञान नेत्र कहते है | इसी तरह हम लोगों को तीसरे नेत्र की जरूरत हो तो संस्कृत भाषा का अध्ययन लाभकारी सिद्ध होगा और उस समय अंग्रेजी भाषा चश्मे के रूप में काम आयेगी | चश्मे की जरूरत सबको नहीं पड़ती | हाँ कभी कुछ लोगो को उसकी जरूरत पड़्ती है | बस इतना ही अंग्रेजी का स्थान है , इससे अधिक नहीं | इसलिये मैं चाह्ता हूं कि हिंदी का प्रचार अच्छी तरह व्यापक रूप में होना चाहिये |”
अंत में संत विनोबा पवनार चले गये और मौन व्रत का पालन करते हुये सन्यासी जीवन जीने लगे | सभी उनके दर्शनों और आशीर्वाद के लिये उनके पास जाते थे | नवम्बर ,1982 में उनका देहांत हो गया | 1983 में उन्हें मरणोपरांत “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया |
नसरीन अली “निधि”
अध्यक्षा
“वादीज़हिंदी शिक्षा समिति”( रजि.)
श्रीनगर , जम्मू और कश्मीर