गीतिका
नशा दम्भ तो प्रबल बहुत है गलत राह पर लाये,
धन, सत्ता के मोह अनूठे चाहत मन की दौड़ाये
मान जान के कभी मिला ये अवसर सब भूले असल
कौन दीन की चिंता करता निज हित में खो जाये
पहन धवल महगे से कपड़े उजले दीखते घूरी ले
मन मैला काले से तरीके सोच किसी पे आस लगाए
कल तक साथ रहे थे जिनके करते अब छुपाछुपी
अकड़े बैठ कुर्सी पर जाने मुझसे कम ही सब पाए
मगर कभी वक्त भूल न जाना ये तो बदलता रहता
आज यहाँ कल निकल वो किसको मुँह की खिलाये
— रेखा मोहन