समर्पण -कविता
घर बार बच्चे देखती
भुल गई अपनी स्वतंत्रता
नहीं याद मुझे क्या जीना
करूँ बस हर पल मंत्रणा।
मेरा नाम और रिश्ता भी
सब के सामने निरर्थक सा
कोई मेरी कीमत नहीं जान
एक सुबिधा हमदर्दी करुणा।
तुमसे सीखे तौर-तरीके,
क्या तुम मेरे सीखोगे।
हर पल मुझसे जीतते आए,
अब और कितना सहना|
अपने छोड़े सपने छोड़े,
तुमको अपना माना है।
हर सपने का समझौता कर,
हाथ तुम्हारा थामा है।
मैं औरत हूं कि सीखें,
देना तुम कब छोड़ोगे।
टूट चुकी हूं अंदर-अंदर,
मन से तुम कब जानना ।
चौका-बर्तन, खाना-पानी,
क्या सब मेरी जिम्मेदारी।
घर के कामों के करने की,
कब लोगे तुम हिस्सेदारी।
सुबह से उठकर रात तलक,
मैं मशीन बन जाती हूं।
बच्चों से बूढ़ों की इच्छा की,
मैं अधीन सी जाती हूँ मानी|
घर के कामों को मेरे,
कर्तव्यों में ढाला जाता।
सारे लोगों की अपेक्षाओं,
को मुझसे ही पाला जाता।
घर-बच्चे-ऑफिस संभालकर,
भूल गई खुद का व्यक्तित्व।
जीवन के इस पड़ाव पर,
ढूंढ रही अपना अस्तित्व।
मैंने अपना सब कुछ छोड़ा,
क्या तुम भी कुछ छोड़ोगे।
टूट चुकी हूं अंदर-अंदर,
मेरा मन कब प्रभु से होना ।
— रेखा मोहन