लघुकथा

रोटी

वह रोटी ही थी जिसकी तलाश में रामू अपना घर परिवार व गाँव छोड़कर शहर की शरण में आया था ।
लेकिन यह उसका दुर्भाग्य ही था कि अभी शहर में आए चंद दिन भी नहीं हुए थे, कोरोना के चलते पूरे देश में लॉक डाउन की घोषणा हो गई ।
चंद रुपये जो रामू ने बचाये थे उसी के भरोसे उसने शहर में ही रहने का फैसला किया और साथी मजदूरों के साथ गाँव की तरफ पलायन नहीं किया ।
इक्कीस दिन के लॉक डाउन की अवधि बीतने से पहले कोरोना के मरीजों की बेतहाशा बढ़ती संख्या को देखते हुए लॉक डाउन की अवधि और बढ़ाये जाने की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी ।
रुपये खत्म कर चुका रामू इस सुगबुगाहट से खासा परेशान हो गया ।
पिछले दो दिन उसने कुछ नहीं खाया था । कुछ सेवाभावी संस्थाएँ भूखों को भोजन करवाने का अनथक प्रयास करती थीं लेकिन अक्सर उनका प्रयास नाकाफी साबित होता था जब रामू जैसे अनगिनत मजदूर भूखे रह जाते थे ।
आज तीसरे दिन वह भूखा प्यासा पैदल ही निकल पड़ा था शहर के अपने आशियाने को छोड़कर गाँव की तरफ और इस बार फिर वजह बनी थी ‘ रोटी’ !
दिल्ली से बिहार के भागलपुर के लिए पैदल निकला रामू बनारस पहुँचकर अपनी जिंदगी की जंग हार गया और दुर्भाग्य से इस बार भी वजह वही थी ‘ रोटी ‘!

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।