संस्कृत के दुश्मन कौन ?
मेरा धर्म ‘धर्मांध’ नहीं है, अपितु व्यक्तिश: पीड़ा को जानना भी है ! सिर्फ सवर्ण मिलकर ही सनातन धर्म नहीं बनाते हैं, अपितु इनमें कई जातियाँ हैं ! जब कथित सवर्ण कथित शूद्र को संस्कृत पढ़ने नहीं देंगे, तो संस्कृत पढ़नेवालों की संख्या कम होती चली जायेगी, जैसे- मेरे घर पर बैठक नहीं है और परिवार में सिर्फ़ मैं नहीं हूँ, इसलिए महिलाजन्यता लिए किसी को बुलाने पर परिवार में सबकी सम्मति लेनी पड़ती है ! घर आने के बाद घरवाला वेशभूषा हो जाती है, इसी बीच किसी के आने से असहजता तो होती है ! कथित सवर्णों ने ज्यादा ही असहजता उत्पन्न किये !
चाहे, इस स्थिति के लिए बुरा मानिए या भला ! तब मैं बिंदास कैसे हो सकता हूँ ? किसी की व्यक्तिश: पीड़ा समझी जाय, मित्र ! अब तो अतिथि लिए अ-तिथि का जमाना नहीं रहा, फिर अचानक धमक आने में असहजता तो रहती ही है ! हाँ, हम गरीब आदमी ऐसे ही होते हैं !
अब संस्कृत को ही लीजिए, संस्कृत का सबसे बड़ा दुश्मन ‘पुरोहिती’ वर्ग है, एक शूद्र (महर्षि वाल्मीकि) ने तो संस्कृत में ‘रामायण’ लिखा, किन्तु एक ब्राह्मण (महर्षि तुलसीदास) ने स्थानीय भाषा में ‘रामचरित मानस’ लिखकर ‘संस्कृत’ भाषा का बंटाधार कर दिया । तुलसीदास ने संस्कृत भाषा को सर्वाधिक चोट पहुँचाए हैं !
तभी तो कहता हूँ कि संस्कृत का बड़ा दुश्मन पुरोहित वर्ग है, वे इसे आजीविकोपार्जन भर मानते हैं ! गोकि कितने पुरोहित हैं,जिनकी संतान संस्कृत में MA हैं, Ph D हैं ?
अब कहेंगे यह कि यह तो जनमानस की भाषा है, किन्तु जनमानस की भाषा ‘अवधी’ है क्या ? अगर मैथिली, भोजपुरी अथवा अंगिका इसी भाँति अडिग रही, तो हिंदी भी खत्म हो जाएगी ? जैसे- अवधी, ब्रज, उर्दू, फ़ारसी इत्यादि आने से ‘संस्कृत’ खत्म हो गई !