सलीका
फूल जानते हैं- कैसे खामोशी-आनंद से खिलना है.
नदी समझती है- कैसे भरी बरसात को सहेजना है.
सागर को ज्ञात है- कैसे नदियों के असीम प्यार को समेटना है, फिर कभी ज्वार से तो कभी भाटे से सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण बल को संतुलित करना है.
सूर्य जानता है- कैसे स्वयं असहनीय तपिश को सहते रहकर भी जगतीतल के सभी ताप हरने हैं.
चंद्रमा को विदित है- कैसे सूर्य से ताप व रोशनी उधार लेकर शीतल मन से शीतलता और सौम्यता का प्रसाद बांटना है.
तारे कहते हैं- न जाने कौन हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हम भी पथ-प्रदर्शन के कल्याणकारी कार्य में निमग्न रहते हैं.
धरती मां जानती हैं- सुख सहना सबको नहीं आता, दुःख उन्हें घेरते हैं, जो सुख को सलीके से नहीं सहते.
”समय के मुताबिक चलने वाले सब सह लेते हैं. जब थोड़ी देर के लिए भी मास्क मुसीबत लगने लगे, तो रोज 8-10 घंटे पी.पी.ई. किट और मास्क पहनकर सेवा कार्य में रत रहने वाले कोरोना वॉरियर्स को याद कर लेना.” आज की अनिवार्य आवश्यकता मास्क ने सहने का सलीका सिखाया.
”मास्क पहनकर ही कोरोना से मुक्ति मिल जाए, तो गनीमत समझो,” मानव ने समय के अनुसार जीने का सलीका सीख लिया था.
धरती मां का कथन बिलकुल सही है, कि सुख सहना सबको नहीं आता. सुख मिलने पर भी और अधिक पा लेने का दुःख उन्हें घेरे रखता है. इसी लालसा से असंतुष्टि, अतृप्ति, दुःख की उत्पत्ति होती है. जो सुख को सलीके से सहने वाला सदा सुखी रहता है.