ग़ज़ल
उन्हें क़ातिल बताया जा रहा है।
लहू जिनका बहाया जा रहा है।।
समंदर से चला दरिया पलट कर,
पहाड़ों पर चढ़ाया जा रहा है।
नियत खोटी हुई है आदमी की,
मुहब्बत को सताया जा रहा है।
नहीं मालूम हैं जीवन के मानी,
उसे तो बस बिताया जा रहा है ।
फ़क़त इंसान अंधा इस कदर अब,
पिता को मृत बताया जा रहा है।
हवस पैसे की इंसा को हुई यूँ,
कि अब रिश्तों को खाया जा रहा है।
यहाँ अपना – पराया कौन समझे,
‘शुभम’ कुनबा ख़ुद मिटाया जा रहा है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’