लघुकथा – जिंदगी से संघर्ष
इस साल प्रकृति ने कुछ ज्यादा ही कहर बरपाया | पिछले वर्ष तो बाढ़ से कुछ फसल बच गई थी, लेकिन इस साल सब कुछ बह गया | बेचारे देवीदीन चिन्ताग्रस्त टूटी खटिया पर पड़े – पड़े सोच रहे थे | कितना मंहगा बीज खरीदा, कितने – कितने मंहगें नामी कीटनाशक फसल में डाले, साहूकार से लिया सारा ऋण फसल में लगा दिया | बीवी – बच्चों के लिए उस पैसे से एक रुपये का लत्ता (कपड़ा) तक न खरीदा |
इस साल कैसे गुजारा होगा | बूढ़ी माँ की दवा का खर्च, बच्चों की पढ़ाई का खर्च, बिजली का बिल और ऊपर से साहूकार का पांच प्रतिशत वाला ब्याज और तमाम छोटे – बड़े खर्च… सोचकर ही देवीदीन की आत्मा कांप उठी | सारी रात करवटें बदलते हुए गुजारी |
सुबह तड़के देवीदीन खेतों की ओर निकल गये | घने पेडों में जाकर एक पेड़ के मजबूत से तने से गमछा बांधने लगे | फंदा तैयार बस झूलने ही वाले थे कि उधर से गुजर रहे मातादीन की निगाह देवीदीन पर पड़ गई | समय रहते देवीदीन जी बच गए |
मातादीन -‘ मुझे पता है देवीदीन, कि इस साल तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, ऊपर से तमाम कर्ज | लेकिन मेरा क्या बचा है | मेरी भी तो सारी फसल बह गई | कर्जा तुमने लिया है तो क्या मैंने नहीं लिया | तुम्हारे घर में तमाम समस्या हैं तो क्या मेरे घर में नहीं हैं | लेकिन मुझे देखो… मैं कायर नहीं हूँ, जिंदगी से जंग लड़ रहा हूँ | जो होगा सो देखा जायेगा | जीवन का सारा भार परमेश्वर के ऊपर छोड़ दिया है | परिवार में चौबीसों घंटें कलह होती रहती है | पत्थर बनकर सब सह जाता हूँ | मेरे भाई मौत तो एक दिन आनी ही है, लेकिन इसतरह अपने आपको समय से पहले खत्म कर लेना जीवन की सबसे बड़ी कायरता है |’
देवीदीन मातादीन की बातों को समझ गये | उनके मृतप्राय हृदय को संजीवनी मिल गई | देवीदीन ने आत्महत्या करने का विचार अपने मन से हमेशा – हमेशा के लिए खत्म कर दिया और जिंदगी से संघर्ष का संकल्प लेकर घर की ओर चल पड़े |
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा