दो पल सपनों के पनघट पे ठहरा करो।
पलकों की मुंडेरों से,अंतर्मन में झाँका करो।
बहुत प्यासे है हम प्यार की बूंद बूंद को,
प्रीत की घटा मेरे आँगन भी बरसा करो।
ह्रदय में प्रीत का मोती छुपा रखा है मैंने,
तुम उथले सागर की सीपियाँ न माँगा करो।
शहर का नीम अन्धेरा, सन्नाटा, बेकल मन,
स्पन्दन बन के ह्रदय में धडका करो।
यौवन की देहरी पे उमडी है ये अभिलाषा,
बिखर जाए दूरियों के पुल कुछ ऐसा करो।
प्रिया प्रगति के पथ पर चाहिए साथ तुम्हारा,
मेरी प्रेरणा बन के दीपशिखा सी जला करो।
निंदयारी पलकों के सपने बासंती हो जाये,
अपने अधरों से मेरे गीतों को छुआ करो।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”