मंजिल
मंजिलों की ख्वाईश में अक्सर कदम डगमगा जाते हैं
फिसल जाते हैं रास्ते हाथों में सिर्फ टुकड़े नजर आते हैं
बेपनाह इश्क़ में अक्सर जज्बात का कोई मोल नहीं होता
शायरों के जख्म भी जब हँसते हुए पैगाम नजर आते हैं
मदिरा को दोष क्यों देते हो ऐ मेरे साकी !
मोह्हबत में टूटे हुए दिल भी अक्सर बेताब नजर आते हैं
इबादत तो कर न सके किसी के सच्चे उसूलों की
झूठों को अक्सर सच्चे लोग भी बेईमान नजर आते है
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़