लघुकथासामाजिक

बस की खिड़की

एक बार कुछ लोग एक बस से सफर कर रहे थे। उसी रास्ते से एक मंत्री जी भी जा रहे थे तभी अचानक से उनकी गाड़ी खराब हो गयी। अब सुनसान रास्ते पर कोई मेकैनिक न मिलने के कारण उन्हें इंतज़ार करना पड़ा।

अब वो ठहरे नेता , इंतज़ार करना  और रास्ते पर खड़े रहना उन्हें शान के खिलाफ लगा। तभी वो बस भी उस तरफ से गुज़र रही थी। नेता जी ने अपने लोगों को इशारा किया की बस को रुकवाए वो उस बस से ही चले जायेंगे।
बस के सबसे पहले विंडो सीट पर एक 10 साल की बच्ची बैठी थी , मंत्री जी के लोगों ने बस रुकवा दी। मंत्री जी उस पर सवार हो गए। उनके बस में चढ़ते ही आधे से ज्यादा यात्री खड़े हो गए और अपना अपना सीट उन्हें और उनके लोगों को देने लगे।
नहीं खड़ी हुई तो वो बच्ची , मंत्री जी का मन भी पहले विंडो सीट पर बैठने का हुआ। उन्होंने ये बात अपने सेक्रेटरी को बताई। सेक्रेटरी ने बड़े प्यार से जाकर उस बच्ची को वहाँ से उठने के लिए बोला।
बच्ची ने साफ साफ मना कर दिया। सेक्रेटरी ने उस बच्ची को लालच दिया, डराया, धमकाया पर बच्ची टस से मस न हुई।
आखिर में मंत्री जी को हार मान कर कहीं और बैठना पड़ा।
बस फिर चल पड़ी, कुछ दूर बाद ही एक मैले कुचले कपड़े में एक शख्स बस में चढ़ा। वो थका हुआ था सीट नहीं है देखकर उसका मुँह उतर गया। तभी बच्ची की नज़र उसपर पड़ी और वो अपना सीट छोड़ उस शख्स के पास जाकर बोली “अंकल आप मेरी सीट पर बैठ जाइए , हम बैठे बैठे थक गए है”।
उस शख्स ने उस बच्ची के सर पर हाथ फेरते हुए उसका शुक्रिया किया और जाकर उस सीट पर बैठ गया।
इस घटना को देखते ही मंत्री जी तिलमिला उठे , मानो उन्हें ऐसा लग रहा हो कि उस बच्ची ने इन्हें अपनी सीट न देकर उस मैले कुचले कपड़े वाले शख्स को देकर इनकी बेइज़्ज़ती की है। पर इस बात का कड़वा घूँट पी कर बैठे रहे मंत्री जी। बस चलते चलते अपनी मंज़िल पर पहुँच गयी ।
सब उतरने लगे तभी मंत्री जी ने उस बच्ची से पूछा ” एक बात बताओ , मेरे लिए बड़े से बड़े आदमी ने अपना सीट छोड़ दिया, पर तुम अड़ी रही की हम सीट नहीं देंगे। और अचानक ही उस शख्स को सीट दे दिया जो एक मैले कपड़े में था ?”
बच्ची ने इसका जवाब बड़े ही अदब से दिया ” अंकल वो सीट मैं किसी को न देती , मेरा मकसद किसी की बेइज्जती करना नहीं था। पर जब आप चढ़े तो सबने आपको अपना सीट दिया और ज़िद्द के लिए बस आप मेरी सीट पर बैठना चाहते थे , पर जब वो शख्स चढ़े तो  वो थके हुए थे और किसी ने उनके लिए अपना सीट नही छोड़ा , और न उन्हींने किसी को उठने के लिए बोला। बस इसीलिए मैंने अपना सीट उन्हें दे दिया”।
“मतलब तुमने एक नेता से बढ़कर उस शख्स को समझा ,जिसने ढंग के कपड़े भी नही पहना था ।” मंत्री जी झुंझलाकर बोल पड़े।
” अंकल आपने सिर्फ उनके गंदे कपड़े देखे । उन्होंने ने क्या पहन रखा था वो नहीं ? उन्होंने ने इंडियन फौजी की वर्दी पहन रखी थी । और एक फौजी अपने देश के लिए अपना घर, प्यार , पैसा, ज़िन्दगी सबकुछ त्याग कर सरहद पर तैनात रहते है , तो क्या उनके लिए मैं एक सीट नहीं छोड़ सकती।”
मंत्री जी उस बच्ची की बातें सुनकर हैरान थे , उन्होंने ने पूछा ” बेटा इतनी छोटी हो इतना ज्ञान कहाँ से है, फौजियो के लिए इतनी इज़्ज़त, जिस उम्र में लोगों को ये भी पता नही होता की फौजी होते क्या है”।
“अपने पापा से सीखा है अंकल।” उस बच्ची ने कहा,
“मुझे तुम्हारे पापा से मिलना है, मिलाओगी न ?” मंत्री जी अब नर्म आवाज़ में बात कर रहे थे।
“आप तो क्या मैं भी नहीं मिल सकती उनसे, और आज ही नही कभी नहीं, पिछले साल ही बॉर्डर पर आतंकियो से मुठभेड़ में वो शहीद हो गए” बच्ची का गला भर आया था। ये कहते हुए वो अपनी माँ के साथ चल दी।
और मंत्री जी जैसे एक मूर्ती की तरह वही पर जम गए। उनके मुँह से एक आवाज़ नही निकली पर आँख से आँसू ज़रूर बह गए।

— दिव्या श्री मिश्रा

दिव्या श्री मिश्रा

मैं बिहार की रहने वाली हूँ। पत्रकारिता की फर्स्ट ईयर की छात्रा हूँ। और खुद के जीवन और आस पास की घटनाओं को देखकर प्रेरित होकर लिखती हूँ।