अंतिमा की दीदी
अंतिमा की दीदी होने के नाते आप मेरी भी ‘दीदी’ हुई। आनंद के मुँह से ‘दीदी’ सुनकर अंतिमा की दीदी को बुरा तो नहीं लगा, लेकिन अच्छा भी नहीं लगा । आनंद आगे कुछ कहते, परंतु उनसे पहले अंतिमा की दीदी ने बगल में बैठी सरोज को देखती हुई कहने लगी-
आनंद जी, प्यार वह भावना है, जो परिचित-अपरिचित माहौल नहीं देखता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह भावना बताई ही जाय, परंतु अगर बता भी दिया जाय, तो यह संभव नहीं कि सामनेवाला भी आपकी भावनाओं का कद्र करें…, लेकिन मुझे आपकी यह बातें ही अच्छी लगती है कि आप मेरी भावनाओं का कद्र कर यहाँ तक आयें। मैं रात से लाडो को यही समझा रही हूँ कि तुम अपनी भावनाओं को मारकर मुझे खुशी क्यों देना चाह रही हो, लेकिन यह बेहद ज़िद्दी है । मैं इसे समझाती रही कि प्यार में पवित्रता होनी चाहिए, जैसे आप दोनों का प्यार। मुझे आपसे प्यार हुआ तो है, लेकिन आपके व्यक्तित्व से और मेरी लाडो तो आपके लिये ही बनी है, लेकिन अंतिमा की दीदी की बातों के दरम्यान आनंद को यह मालूम लग गया कि अंतिमा को उनकी दीदी ‘लाडो’ ही कहती हैं, परंतु आनंद के मन में यह बात आ गयी कि अंतिमा की दीदी की बातें ऐसी है कि उन्हें भी उनकी व्यक्तित्व से प्यार न करा दें।