मैं और मेरे अक्षर
धूप में चलता हूँ,
सुख और आराम को त्यागकर
कि मेरी यात्रा
मानव की ओर है
एक अच्छे समाज की
परिकल्पना में
अक्षरों के साथ
आगे की ओर चलना है
रास्ते में
खूँख्वार जंतु
मानवता को खाते दिखते हैं
उद्वेलित होता हूँ,
पीड़ा से विचलित होता हूँ
क्रोध की ज्वाला फूँकता हूँ
मेरे अक्षर शेर बनते हैं
हथौड़ा बनते हैं
प्रहार करते हैं
हर कदम पर
इन्हीं की हरकतें
छी.. छी…
थू.. थू..थू…
सभ्यता का प्रश्न
मानव का प्रश्न
मानवता का प्रश्न
धर्म का प्रश्न
संस्कृति का प्रश्न
सांप्रदाय का प्रश्न
नीति का प्रश्न
नियमों का प्रश्न
समाज का प्रश्न
विचारों में डूब जाता हूँ।
तेज धूप
गर्म हवाएँ
मुझे घेरती हैं
मन नीरसता के साथ
जम जाता है
रूक जाता हूँ
तभी सहृदयता की शीतल वायु
मुझे संभालती है
अस्मिता के साथ
चलने की ताकत देती है
बाबा साहब की विचारधारा,
महामानव बुद्ध के वचन
मेरे अंदर ताकत भर देते हैं
प्राण शक्ति आ जाती है
मैं और मेरे अक्षर
आगे की ओर अग्रसर होते हैं ।