शब्द बदलने से सोच बदलने तक
“साहब ! सोच तो बदलने से रहा ! अगर सोच बदलने की प्रतीक्षा करते रहें, तो कोई देश कानून ही क्यों बनाये ? देश की आज़ादी के 25 साल बाद भी जाति प्रमाण-पत्र में ‘ग्वाला’ शब्द दर्ज़ होता था, जिससे दबंगों और सवर्णों द्वारा इसी नामार्थ संबोधित किया जाते रहा, इस जाति के लोगों में हीनता आबद्ध होने लगी, तब श्रद्धेय बी पी मंडल के सद्प्रयास से उस शब्द को हटाकर ‘यादव’ शब्द रखा गया । यहाँ चाहकर भी सोच नहीं बदला, शब्द बदलना पड़ा।
‘हरिजन’ शब्द का व्यवहार दबंगों और सवर्णों द्वारा व्यंग्यात्मक टिप्पणी के तौर पर लिया जाने से अनुसूचित जाति के लोगों ने आपत्ति जताई, फलस्वरूप सरकार ने इस शब्द के एतदर्थ संबोधन पर रोक लगा दी । हे साहब, फिर भी ‘सोच’ नहीं बदला, शब्द के ग़ैर-इस्तेमाल पर रोक लगी ।
कुम्हड़े (कुम्हार) और चमरे (चमार) शब्द के वाचन पर रोक है, जाति प्रमाण-पत्र भी क्रमशः ‘प्रजापति’ व ‘रविदास’ नाम से भी जारी होती है । सोच कहाँ बदली ? ‘शब्द’ बदली !
बिहार में आख़िरकार ‘शराबबंदी कानून’ बनी, लोग इसे गलत व्यसन मान स्वत: कभी नहीं छोड़े । ‘बाल विवाह’ और ‘दहेज कुप्रथा’ भी स्वत: दूर नहीं हुई, इसे उन्मूलन के लिए और कड़ाई से पालन के लिए आखिरकार बिहार सरकार ने ‘कानून’ बनाया । क्योंकि–फिर भी सोच नहीं बदली!
जब हम मनु-शतरूपा, आदम-हव्वा, एडम-ईव की संतान हैं, तो जातिगत भेदभाव कैसे?
आज़ादी के 71 साल बाद भी एक ब्राह्मण स्वत: (प्रेम विवाह नहीं) अपनी संतान की शादी मोची व धोबी के यहाँ कहाँ कराते हैं ? या कोई दुसाध स्वत: (प्रेम विवाह नहीं) अपनी संतानों की शादी राजपूत व कायस्थ में कराने के आलोकश: प्रस्ताव लेकर कहाँ जाते हैं ? बोलिये साहब, हम सोच बदल पा रहे हैं ! नहीं न !” मैंने अपने यथोक्त विचार को स्पष्ट किया।