गीतिका/ग़ज़ल

जेब से फ़कीर

जेब से फ़कीर और दिल से उदास में हूँ ।
मानो न मानो कई सालों से वनवास में हूँ ।।
बिरह के जंगल में अमंगल के बीहड़ में..,
भटक रहा हूँ साधु में…, सन्यास में हूँ …।
चिता की आग में चिंता की आगोश में…,
जलता हुआ बुझता हुआ शिलान्यास में हूँ।
मैं जो भीतर गया मैं भी अनायास तर गया…,
बाहर निकला तो देखा खुला आकाश में हूँ ।
जिधर अटक गया उधर ही भटक गया…,
कोई मानता ही नहीं सब के आसपास में हूँ ।
जेब से फ़कीर और दिल से उदास में हूँ ।
मानो न मानो कई सालों से वनवास में हूँ ।।।।।
— मनोजवम 

मनोज शाह 'मानस'

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