टाई
वो बैठे हैं….
पूरी अकड़ के साथ…
स्टाइलिश सूट-बूट मॆं….
गले मॆं बँधी टाई….
बता रही थी….
नयी नयी बँधी हैं आज़….
उससे पहले कभी नहीँ….
आज़ ही क्यों ?
मैंने पूछा तो
मुस्कुरा कर थोड़ा शरमाते
थोड़ा इठलाते हुये…
बोली टाई….
अरे…वो आज़ सौदा…
करने आये हैं न ?
सौदा ? मैंने फ़िर थोड़ी ढीली पड़ती टाई
का मन टटोला….
हाँ…..भई लड़की देखने आये हैं…
और अच्छी कीमत मिले….
जनाब को खुद की….
बस ! इसीलिए….
हमॆं सजाकर लायें हैं…आज़
गले मॆं ..
टाई फ़िर इधर-उधर हिलने लगी…
धीमे-धीमे….मुस्कुरा रही थी…
मैं सोचने लगी….
ये निर्जीव होकर भी समझ रही है
इंसानी फितरत को….
और इंसान हैं कि..
मुखौटे पर मुखौटा….
चढाने से नहीँ आ रहा बाज ॥
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”