श्री परशुराम जी, अमृतसर में आर्य समाज के पुरोधा -1
सन 1900 के आसपास शामचौरासी, जिला होशियारपुर से पंडित परशुराम जी परिवार सहित आकर अमृतसर में रहने लगे।उस समय भारत वर्ष में भंयकर अकाल का दौर था। अंग्रेजों का शासन था और लोगों को अन्न आदि थोड़ा ही मिलता था, पंजाब में अधिक अस्थिरता नहीं थी। उस समय पंडित जी की आयु तीस के आसपास होगी, नया जोश और कुछ नया करने का उत्साह था। स्वामी दयानंद सरस्वती का भाषण सुन कर इनके मन में नये विचार और उथल-पुथल मची हुई थी। विचारों और कर्म से पक्के सनातन धर्म के पालक होते हुए पूर्णतया आर्य समाज की धारा की ओर परिर्वतन में बह गए। आर्य युवक सभा की स्थापना कर इन्होंने युवकों को आर्य समाज की ओर प्रेरित किया। लोहगढ़ में पहली आर्य समाज की स्थापना की जो आज तक निरंतर चल रही है। इन्होंने शहर में 10 क्षेत्रीय और एक केन्द्रीय आर्य समाज स्थापित की। किसी भी समाज में कोई भी पद ग्रहण नहीं किया परन्तु सहयोग शत-प्रतिशत किया।
शिक्षा के क्षेत्र में भी इन्होंने शहर में पहला स्कूल, वैदिक धर्म प्राईमरी विद्यालय, बाजार टोकरियों में निशुल्क बालकों के लिए शुरू किया, जहां आप और आप के पुत्रों, विशेषकर पंडित राम देव जी ने पढ़ाया। इस विद्यालय में चौथी (चतुर्थी) कक्षा तक पढ़ाई होती थी। बाद में यह स्कूल आठवीं कक्षा तक कर दिया गया था। यहां पहले हरि राम जी को हैड मास्टर बनाया। कुछ समय पश्चात डी ए वी हाई स्कूल, हाथी गेट के पास शुरू करवाया। सौभाग्य की बात है कि मैंने इन दोनों स्कूलों में पढ़ाई की है। डी ए वी हाई स्कूल में पांचवीं कक्षा में अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी जिसे स्वयं हैडमास्टर श्री अनन्त राम पढ़ाते थे।चार लाईनों वाली कापी पर विवरली की निब वाले होल्डर से अंग्रेजी में लिखाई् करवाते थे ताकि बालकों का लेख अच्छा हो। बालिकाओं की शिक्षा के लिए आर्य समाज लोहगढ़ में ही सरस्वती हाई स्कूल शुरू किया जहां बाद में जे बी टी कक्षा भी आरम्भ कर दी। दो डी ए वी मिडल स्कूल, लोहगढ़ और लक्ष्मणसर में खोले गए।
मंदिर में ठाकुर जी को नहलाना, मूर्तियों का श्रृंगार और फिर पूजा तथा आराधना करना और आरती करना आदि कार्य करने वाला पूर्णतया सनातन धर्म का पालक एक दम आर्य समाज का अनुयाई बनना केवल स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी श्रद्धानंद जी के संपर्क में आने के कारण हुआ। जीवन में एक ही बार श्री स्वामी दयानंद सरस्वती जी का भाषण सुना। क्या प्रभाव पड़ा ! पूरा जीवन ही आर्य समाज को अर्पित कर दिया।
मंदिर के सम्पूर्ण कार्य करना वाले पंडित जी 12,13 वर्ष के होंगे, तभी पंडित निहाल चंद, गढ़दीवाला वाले ने इनके पिता श्री गंडा राम को अपनी बेटी मलावी से विवाह के लिए कहा। वह इस होनहार बालक को मंदिर कार्य में निपुण देख कर ही बड़े अचंभित थे और उन्होंने इसी योग्यता के आधार पर अपनी बेटी के लिए कहा। कुछ समय बाद विवाह भी हो गया।
शाम चौरासी गांव के आसपास छोटे छोटे चौरासी गांव हैं जिनकी पधयाई (पुरोहित) के काम यहां के ब्राह्मणों के पास हैं। इनके घर यहां सबसे ऊंचे स्थान पर हैं। मोहल्ले के तरफ ब्राह्मण और दूसरी तरफ बहल रहते हैं और अंत में भल्ला का घर है। मोहल्ले के सभी लोग कूंए से पानी लेते थे। आदमी और बच्चे कूंए के पास ही नहाने के बाद घर के लिए पानी लाते थे। बहुत गहरा कूंआ होने के कारण यह कठिन काम था और सन 1950 तक ऐसा ही मैंने देखा था।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के शाम चौरासी घराना के प्रमुख गायक- युग्ल सलामत अली और अमानत अली इन के घरों की पिछली ओर रहते थे, सन 1947 में पाकिस्तान बनने पर 1948 में वे सब लोग पाकिस्तान चले गए थे।
शाम चौरासी वैसे तो होशियारपुर जिले में है परन्तु यहां के निवासी अधिकतया जालंधर ही आते जाते हैं । पंडित जी जालंधर में लाला शंकर दास त्रेहन के संपर्क में आए और वहीं स्वामी जी का भाषण सुन बहुत प्रभावित हुए । और इसी समय सन 1895 के आसपास इन्हें डेढ़ रुपए मासिक वेतन पर शिक्षक का काम मिला, कुछ समय तक निभाया और जालंधर से अमृतसर चले गए। वहां स्वामी श्रद्धानंद जी के संपर्क में आने पर शुद्धि आन्दोलन में भाग लिया और उनसे पुरुस्कार प्राप्त किया और आर्य समाज के प्रेरक बन गये ।
इनके विचार में नौकरी करना ब्राह्मण के लिए अच्छा नहीं और उसे पुरोहित और शिक्षक का काम करना चाहिए। अमृतसर में इन्होंने आर्य समाज पद्धति के अनुसार सभी लोगों के घरों में सभी संस्कारों का चलन शुरू किया और कहा करते थे कि इन संस्कारों का वैज्ञानिक आधार है और इनका महत्व हमारे जीवन में है। महिलाओं को भी इन संस्कारों में भाग लेना चाहिए इन्होंने महिलाओं के मुण्डन और यज्ञोपवीत संस्कार भी करवाए। अंत्येष्टि संस्कार करवाने के लिए सनातनी पंडित प्राय आनाकानी
करते थे।पं परशुराम जी ने कभी मना नहीं किया और निशुल्क कार्य करते थे।इस स़ंस्कार के लिए कभी दक्षिणा नहीं ली और अपने व्यय से आते जाते थे।
उस समय कुछ ब्राह्मण विवाह संस्कार के लिए पहले ही अपनी दक्षिणा बता दे देते थे परन्तु प़ं जी ने कभी दक्षिणा नहीं मांगी , हां यदि किसी ने प्रसन्न होकर जो दिया उसे धन्यवाद दिया। कभी कभी तो लड़की को अपनी ओर से भी शगुन दे दिया करते थे।
पंडित परशुराम जी अपनी दिनचर्या में नियमित थे। प्रात: 5बजे उठ कर शौच आदि से निवृत होकर ठंडे जल से स्नान करना और 6.15 बजे आर्य समाज लक्ष्मणसर के लिए पैदल ही जाते थे। नित्य कर्म यज्ञ के बाद वहां से 8.15-8.30 के बीच वापस घर आकर सादा अल्पाहार और थोड़ा दूध लेते थे। दोपहर को 12.00 बजे खाना ( चपाती, ऋतु अनुसार सव्जी, दही), सांय चार बजे शीत ऋतु में दूध या कभी चाय और 5बजे ग्रीष्म ऋतु में बादाम और चार मगज़ की शरदाई (ठंडाई) लेते थे। रात्रि में 9.00बजे खाना (चपाती, दाल और सब्जी) लेते थे और रात को थोड़ी देर के लिए टांगें और पैर हल्के से घुटवाते हुए सो जाते थे और मैंने भी ऐसे बहुत बार किया और कभी कभी थोड़ा ज़ोर से दबा दिया करते थे परन्तु वे सो जाते थे।जब यह दबाना कम देर का होना तो कहना कि सो गये क्या। फल और मिष्ठान प्रिय थे।खीर, हलवा, दलिया, बेसन के लड्डू और बर्फी प्रिय थे।पूर्णतया शाकाहारी, न प्याज न मिर्च, न मसाला खाना लेने वाले समय के बड़े पक्के थे। थोड़ा विलंब होने पर डांट मिल जाया करती थी।
साधारण परंतु शालीन पहरावा था। सफेद पगड़ी, कुर्ता, और धोती लगभग पूरा वर्ष पहरते थे। बहुत ठंड होने पर सफेद खदर या पट्टी का पाजामा और पट्टी का कोट हो जाता था। सफेद अंगोछा या रुमाल अवश्य ही होता। कुर्ता, धोती और पाजामा प्रतिदिन धुला हुआ करता था।
सादा भोजन करने वाले पंडित जी बड़े सरल स्वभाव के, मृदु, कम परन्तु वजनदार वक्ता थे।दूसरे की बात ध्यान से सुन कर उत्तर देते थे। उनका यह प्रभाव पूरे परिवार पर है।
— डॉ वी के शर्मा