नवजीवन
मृत्यु भी महोत्सव बन जाता है।
नव जीवन के इस संसार में ।
सूर्य भी तो अस्त हो जाता है ।
पुनः उदय होने की ही आस में ।
यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं। है।
इस गतिमान क्षणिक संसार में ।
नदियाँ समुद्र से जा मिलती हैं।
पुनः जल से भरने की आस में।
अवसाद में क्यों चले जाते हो।
समय भी तो पलट जाता है।
पत्ते पुष्प भी समय पर झड़ते हैं ।
नव पल्लव – पुष्प की आस में।
किस्मत को खुद ही लिखना है।
स्वार्थ भरे इस नश्वर संसार में ।
नींद भी टूट जाती सपनों भरी।
ख्वाबों को पूरा करने की आस में।
— मीना जैन दुष्यंत