शिक्षक-धर्म
मैं बाँहों में सृजन, कलम में प्रलय सजाया करता हूँ
बुझते मन में दीप, दिलों में आग जलाया करता हूँ।
कितने अनगढ़ पत्थर मेरे, इन हाथों ने तारे हैं
राम-जॉन-करतार-मोहम्मद, मुझको जाँ से प्यारे हैं
हूँ पत्थर नीवों का लेकिन, मैं शिखरों की शान सखे!
शिलालेख इतिहासों का पर, मैं कल की पहचान सखे!
शिखा बाँधकर सम्राटों का, दर्प हरण कर सकता हूँ
राह भटकते बालक को मैं, चंद्रगुप्त कर सकता हूँ
मैं शिक्षक हूँ धारण कर, विद्या का मर्म बताता हूँ
राष्ट्र बड़ा है मानव से, मानव को धर्म सिखाता हूँ ।
प्राचीन धरोहर का रक्षक, नव पीढ़ी का निर्माता मैं
नव कलियों को पुष्पित करता, भारत का भाग्य विधाता मैं
मैं सदाचार और संस्कृति की, पावन बगिया का माली हूँ
जो साँझ ढले तो मैं शबनम, प्रात: दिनकर की लाली हूँ
दूँ अलख जगा तो मातृभूमि पर, शीश कई बिछ जाते हैं
जननी का भाल सजाने को, सुत मोल बिना बिक जाते हैं
तमसो मा ज्योतिर्गमय का, युगों-युगों से गायक हूँ
ज्ञान-पिपासा का सर्जक, मैं नवयुग का नव नायक हूँ
मै धर्म-युद्ध में कर्मयोग का, पल-पल पाठ पढ़ाता हूँ
राष्ट्र बड़ा है मानव से, मानव का धर्म सिखाता हूँ।
मैं युग-दृष्टा, मैं युग-सृष्टा, मैं जग-जन का हितचिंतक हूँ
मैं कलम उठाऊँ तो ब्रह्मा, वरना शिव-सा विध्वंसक हूँ
गर रखूँ गर्भ में बालक को तो, अर्जुन का निर्माण करूँ
मैं ज्ञानामृत सिंचित करके, हर अधरों पर मुसकान धरूँ
वीणापाणि का मैं आत्मज, बस केवल ज्ञान प्रचारक हूँ
मैं सरस्वती-वीणावादिनी-माँ विमला का आराधक हूँ
विस्तार करूँ जब अपना तो, अंबर छोटा हो सकता है
लघुता को धारण कर लूँ तो, परमाणु भी खो सकता है
नाली-नदियों और झीलों को मैं, सागर तक पहुँचाता हूँ
राष्ट्र बड़ा है मानव से, मानव का धर्म सिखाता हूँ ।
— शरद सुनेरी