मैनी के योगेश्वर
प्रवेशिका अध्ययन के क्रम में पिता के असामयिक निधन पर 6 भाई बहनों में 3 भाइयों के ये परिवार टूट से गए, क्योंकि बहनों की शादी हो गई थी, तब महर्षि मेंहीं ने दीक्षा देकर सम्बल प्रदान किये और वक्तान्तर में शूजापुर के पूर्वपरिचित बीरबल पंडित की पुत्री मैनी से योगेश्वर का विवाह कराने में महती भूमिका निभाये. बाल्यावस्था के दुलरवा नून तेल लकड़ी में आबद्ध होकर माटी पेशा अपनाये, तब भी नेपाल तक योग और ध्यान का प्रचार करते रहे. इसी बीच महात्मा गाँधी के संपर्क में आये और कालान्तर में अगस्त 1942 में उनके करो या मरो आह्वान पर भारतीय आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. संतलाल, नागेश्वर, गोपीपाल, हामिद अंसारी, मंगल, दिल्लू गंगोता, मोहन, पूरण इत्यादि मित्रों के साथ मिलकर अँग्रेजों को गुरिल्ला टाइप से परेशान किये, आजादी मिलने के कुछ वर्ष बाद तक कुल 5 बार जेल गए. स्वतंत्रता सेनानी कहाने के लिए भी लंबी लड़ाई लड़े, बावज़ूद ताम्रपत्र हासिल नहीं हुआ. किन्तु कुछ माह पेंशन मिला, बाद में भारत सरकार द्वारा इसे भी रोक दिया गया. आजादी के 50 साल पूर्ण होने पर पूर्व मा. सांसद शशिभूषण ने इनकी जीवनी को 1942 क्रान्ति सेनानी में शामिल करने को लेकर इनके पौत्र को पत्र भेजा. आजादी के कई वर्षों बाद इनका जुड़ाव संत बिनोवा भावे से भी रहा. नवाबगंज में इनके द्वारा संत भावे को 108 स्वनिर्मित नक्काशीदार सुराही सप्रेम भेंट किया जाने पर इनकी सेवा को उनके द्वारा अनोखा कहा गया. कई माह की बीमारी के बाद 18 जनवरी 2006 को इस महापुरुष का देहावसान हो गया.