अहंकार
तुम मेरा एक मजबूत सहारा थे जिसके आवरण तले मैं खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करती थी। शायद वह एक ऐसा लौह आवरण था जिसे भेदना अच्छे-अच्छे कुशल लोगों के वश में भी नहीं था। वह मेरी अलग दुनिया थी जिसमें केवल मेरे विचार,मेरे कायदे-कानून और केवल मेरी सोच बसते थे। इस खाँचे में जो कोई फिट नहीं बैठता था उसे बाहर का रास्ता देखना पड़ता था।मेरा वह सन्सार मुझे बहुत पसंद था।
सलिल ने हर सम्भव कोशिश की उस खाँचे से मुझे बाहर निकालने की लेकिन मैं कुछ भी समझने को तैयार नहीं थी। सलिल के साथ मेरी शर्तों पर जीना ही मेरी जिद थी। समय के साथ-साथ यह मृगतृष्णा भी बढ़ती गई।खुद की बड़ाई व दूसरों पर हावी रहने की ज़िद इतनी बढ़ गई कि मेरे निजी जीवन में भी तकलीफों का अंबार लगने लगा।
फिर भी मेरे इस मजबूत आवरण में घुसने की इजाजत किसी को देना मुझे कतई मंजूर नहीं था।और जब बात इतनी बढ़ गई कि निबाह मुश्किल हो गया तब मैंने सलिल का घर छोड़ दिया था लेकिन समय के थपेड़ों में मुझे अहसास होने लगा कि यह तृष्णा कभी मिटने वाली नहीं थी और उस आवरण के अंदर घुटन होने लगी थी।
अब वहाँ मेरा साँस लेना भी मुश्किल होने लगा तब मैं छटपटाने लगी क्योंकि जीवन के पींगे मारते परिस्थितियों ने मुझे इतना अकेला कर दिया कि अब वापिस मुझे सलिल की याद आने लगी थी लेकिन सलिल तक पहुँचूँ कैसे? मेरे जीवन में आये पतझड़ को दूर करने को लालायित हो उठी।
आज मैंने एक ऐसा निश्चय कर लिया था जिसमें इस समुद्र में आये तूफ़ान से दूर सलिल से मिल जाना है चाहे उसके लिए मेरे अहंकार के आवरण को तोड़ना पड़े और जैसे ही यह आवरण टूटा वैसे ही अंधियारी रात में भी लहरों के साथ बहती हुई मैं सलिल तक पहुँच गई थी। मेरे समर्पण पर उसने मुझे बाहों में भर लिया था।
— कुसुम पारीक