बरगद की छांव
बुलाती है गलियों की यादें मगर ,
अब अपनेपन से कोई नहीं बुलाता ।
इमारतें तो बुलंद हैं अब भी लेकिन ,
छत पर सोने को कोई बिस्तर नहीं लगाता ।
बेरौनक नहीं है चौक – चौराहे
पर अब कहां लगता है दोस्तों का जमावड़ा ।
मिलते – मिलाते तो कई हैं मगर
हाथ के साथ दिल भी मिले , इतना कोई नहीं भाता ।
पीपल – बरगद की छांव पूर्व सी शीतल
मगर अब इनके नीचे कोई नहीं सुस्ताता ।
घनी हो रही शहर की आबादी
लेकिन महज कुशल क्षेम जानने को
अब कोई नहीं पुकारता
— तारकेश कुमार ओझा