कविता
मैंने दीवारों के
कान नहीं देखे
फ़िर भी बातों
को दीवारों
के पार जाते देखा है
शायद दीवार पर
रेंगने वाली
छिपकलियों की
ये हरकत है
वरना उस कमरे में
हुइ बातें
खुली मुलाकातों में
कैसे बदली
या वो शख्स
झूट था
जो बातों को
गोपनीय नहीं
रख सका
नहीं नहीं
विश्वास है मुझे
उस पर
हाँ इस दीवार के
ही छुपे कान है
लो फ़िर बेचारी
दीवार और उस पर
रेंगने वाली
छिपकलियों
पर इल्जाम आया
वो बच निकला
जो छुपी
बातें सरे आम
कर आया
— अंजलि “अंजुमन”