चलना जरा सम्हल के कंगना, अंगना टेढ़ा है
भारत की व्यावसायिक/व्यापारिक राजधानी मुम्बई यूँ तो हमेशा से ही खास रही है। आजकल उद्धव- संजय की नादानियों ने और कंगना की विरुदावलि ने तापमान कुछ ज्यादा ही बढ़ा दिया है। देश की तथाकथित बुद्धिजीवी जनता भी दो खेमों में एक-दूसरे पर गुर्राती नजर आ रही है। केन्द्र में बैठी भाजपा मुफ्त के अलाव में छककर हाथ सेंक रही है।
मराठा शौर्य और अस्मिता का प्रतीक है महाराष्ट्र जहाँ सभी लोग छत्रपति शिवाजी से जुड़े हैं। कुछ दिल से, कुछ दिमाग से, कुछ बाजार से तो कुछ विरोध से। बाला साहब ठाकरे ने तो नई शिवसेना ही गठित कर ली थी जो उनके सुपुत्र और वर्तमान मुख्यमन्त्री माननीय उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में अवसरवाद साधने में व्यस्त है। एनसीपी प्रमुख शरद पवार की प्रमुख भूमिका सरकार बनवाकर अधिकतम कीमत वसूलने में होती है चाहे सरकार किसी की भी हो। कांग्रेस की स्थिति वेंटीलेटर पर चढ़ने-उतरने से ज्यादा नहीं है। भाजपा स्वयं को सबसे बड़ी पार्टी होने के दम्भ से भरकर सरकार से बाहरहै। राज ठाकरे यह सच्चाई स्वीकार करते ही नहीं कि अब वे नक्कार खाने में तूती से अधिक औकात नहीं रखते। इन राजनीतिक धमाचौकड़ी में बॉलीवुड विगत चार पाँच दशकों से हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान के खिलाफ पहले मीठा जहर और अब जानलेवा जहर देने में लगा हुआ है।
आजकी वीरांगना कंगना उसी दलदल की उपज है। वह भी उन्हीं वामी, हरामी, कामी, दामी, नामी और बदनामी दुनिया में वर्षों तक रही है। उसका भी अतीत सफेद-स्याह दागों से भरा हुआ है। लिव इन रिलेशनशिप जैसी कुवृत्ति और नशे की दुष्प्रवृत्ति से वह भी बची नहीं थी। फिर सबसे अलग कैसे है कंगना! कंगना ने बॉलीवुड के सारे जगमग और बनावटी रंगों को न सिर्फ देखा है बल्कि फीका होकर बदरंग होते हुए भी महसूस किया है। नकली चकाचौध और स्वस्थ-स्वच्छ प्रतिभा को मरते देखा है। किसी बहुत चर्चित व्यक्ति को अचानक बहुमंजिला इमारत की खिड़की से नीचे गिरकर बिखरते देखा है। गुलशन कुमार को प्रायोजित मॉबलिंचिंग में मरते देखा है। पंखे के हुक से मृत देह को झूलते देखा है। उसने और भी बहुत कुछ सुना, समझा और देखा है जो बॉलीवुड के रुपहले पर्दे पर बहुत भयानक दाग हो सकता है। विदेशी धनपशुओं के हाथों में बालीवुड को खिलौना होते हुए भी देखा है। स्क्रिप्ट को किसी फोन कॉल के बाद बद से बदतर होते हुए भी देखा है। फिल्मों का एग्रीमेंट बनते, टूटते और बदलते हुए भी देखा है। उसने वह भी जाना है जो हम जैसे बाहरी लोग नहीं जानते हैं। तब उसमें इतने मजबूत बदलाव आए जिसके चलते वह मर्दानी मणिकर्णिका बना सकी।
स्वैच्छा से झाँसी की रानी का अभिनय करने के बाद लगातार कंगना राणावत के बोल बदलते गए। छद्म धर्मनिरपेक्षता के केचुर से वह बाहर निकलने लगी। हिंदुत्व विरोधी नरेटिव के खिलाफ उसके स्वर मुखर होने लगे। बॉलीवुड की गंदगी से उसके नथुने फूलने लगे। आवाज में आक्रोश आने लगा। वह बॉलीवुड के आकाओं को विद्रोही लगने लगी। सबके कान खड़े हो गए। लेकिन बॉलीवुड वाले इतना तो जानते हैं कि कीचड़ में रहकर पत्थर फेंकने से कीचड़ खुद पर ही गिरेगा। ऊपर मुँह करके थूकने से अपना ही चेहरा गंदा होगा। हमाम में सभी नंगे हैं इसलिए मुँह बंद रखने में ही भलाई है।
बॉलीवुड प्रत्यक्षतः चुप रहा लेकिन बॉलीवुड का अकथनीय दर्द बॉलीवुड का चखना चखने वाले नेतागण कैसे सहते! खुंदस बढ़ती गई। आग में घी का काम किया फिल्म अभिनेता सुशान्त की हत्या/आत्महत्या ने। मुम्बई पुलिस सुशान्त के मामले को आत्महत्या कहकर इतिश्री कर ली थी किन्तु कंगना ने इसे आत्महत्या मानने से इंकार कर दिया। मुम्बई सरकार की हरकतें पूरे देश की नजर में संदिग्ध लगने लगीं। कंगना की आवाज को बल मिलने लगा और फिर विभिन्न जाँच एजेंसिया इस केस में लगा दी गईं। कंगना का कद बड़ा होने लगा। संजय-उद्धव की जोड़ी ने कंगना का विरोध करते करते कंगना को महत्वपूर्ण बना दिया। इसे कंगना के दिल की आवाज कहा जाए या दिमाग की उपज या बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना या उद्धव-संजय का बचपना…। वर्तमान दौर में कंगना बॉलीवुड की गंदगी तथा महाराष्ट्र सरकार के पक्षपात के खिलाफ क्रांतिगुरु बन गई है। इसके साथ आज करोड़ों जनता है। उद्धव को सर्वाधिक गाली स्व. बाल ठाकरे द्वारा स्थापित नीतियों से फिसलने के कारण मिल रही है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा बौखलाहट में उठाया गया हर कदम उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है और कंगना के लिए बैठे बिठाए लाभ का। कंगना को असुरक्षित देखकर केन्द्र सरकार ने वाई श्रेणी की सुरक्षा दे दी जो आगे चलकर जेड श्रेणी में भी बदल सकती है। तत्कालीन परिवेश में बीएमसी द्वारा कंगना का ऑफिस तोड़ा जाना भी सरकार को कठघरे में खड़ा करता है। महाराष्ट्र सरकार अपने वोटरों की नजर में भी विश्वास खोती जा रही है और दूसरी ओर कंगना जनता के दिलों के साथ – साथ मजबूत केन्द्र सरकार का अपनापन पाने में सफल रही है। इस दौर में अयोध्या और कश्मीर पर फिल्म बनाने का ऐलान करना भी कंगना के लिए फायदेमंद हो रहा है। वह राष्ट्रवाद की अगुवाई करने लगी है।
अब उद्धव को चाहिए कि राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें। स्वयं भी और अपने साथियों को भी संयम बरतना सिखायें। अन्यथा कंगनाओं की संख्या बढ़ती जाएगी और ये घर के रहेंगे न घाट के। कंगना को भी सलाह है कि अचानक मिली लोकप्रियता को सम्हाल कर रखें। और अधिक पाने की लालसा में हाथ आए को न खोये। किसी और पर अंगुली उठाने के बजाय स्वयं के काम पर अपनी ऊर्जा खर्च करे। जनता सब समझती है।
— डॉ अवधेश कुमार अवध